एकोत्तरशती
রামপূজন তিওয়ারি সম্পাদিত
দেবনাগরী হরফে রবীন্দ্রনাথ ঠাকুরের বাংলা কবিতার বই

एकोत्तरशती

एकोत्तरशती

देवनागरी लिपि में १०१ चुनी हुई कविताएँ

रवीन्द्रनाथ ठाकुर

साहित्य अकादेमी

नई दिल्ली



Ekottarasati—101 Select Poems of Rabindranath Tagore
in devanagari transliteration with explanatory notes.
Frontispiece: Self-portrait in colour by Rabindranath.
Sahitya Akademi, New Delhi (1958). Price: de Luxè
edition, Rs. 10; ordinary, Rs. 8.

© साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली

विश्वभारती प्रकाशन विभाग के सौजन्य से
प्रस्तुत संस्करण का प्रकाशन
प्राप्तिस्थान:
राजकमल प्रकाशन (प्राइवेट) लि॰
फ़ैज़बाज़ार, दरियाग़ंज, दिल्ली
मुद्रक:
श्री शैलेन्द्रनाथ गुहराय,
श्री सरस्वती प्रेस लि॰, कलकत्ता ९
मूल्य:
विशेष संस्करण १० रुपया
सामान्य संस्करण ८ रूपया

भूमिका

 रवीन्द्रनाथ उन साहित्य-स्रष्टाओं में हैं जिन्हें काल की परिधि में बाँधा नहीं जा सकता। केवल रचनाओं के परिमाण की दृष्टि से भी कम ही लेखक उनकी बराबरी कर सकते हैं। उन्होंने एक हज़ार से भी अधिक कविताओं तथा दो हज़ार से भी अधिक गीतों की रचना की है। इनके अलावा बहुत-सारी कहानियाँ, उपन्यास, नाटक तथा विविध विषयों (जैसे धर्म, शिक्षा, राजनीति और साहित्य)—संबंधी निबंध उन्होंने लिखे हैं। एक शब्द में उन सभी विषयों की ओर उनकी दृष्टि गई है जिनमें मनुष्य की अभिरुचि है। रचनाओं के गुणगत मूल्यांकन की दृष्टि से वे उस ऊँचाई तक पहुँचे हैं जहाँ कभी ही कभी कुछ ही महान् व्यक्ति पहुँचे हैं। जब हम उनकी रचनाओं के विशाल क्षेत्र और महत्त्व का स्मरण करते हैं तो इसमें आश्चर्य नहीं मालूम पड़ता कि उनके प्रशंसक उन्हें इतिहास में शायद सबसे बड़ा साहित्य स्रष्टा मानते हैं।

 किसी प्रतिभावान महान व्यक्ति के आविर्भाव का कारण बतलाना कठिन है, क्योंकि वे साधारण से व्यतिक्रम ही होते हैं। साथ ही प्रतिभावान व्यक्ति की यह भी विशेषता होती है कि वे जाति के अवचेतन या अर्द्धचेतन मन को अनुप्रेरित करने वाले आवेगों और भावनाओं को रूप देते हैं। इस प्रकार अपनी जाति के साथ उनका एक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इसीसे यह बात समझी जा सकती है कि जब प्रतिभाशाली व्यक्ति का आविर्भाव होता है तब लोग क्यों श्रद्धा और आश्चर्य से उसका अभिनंदन करते हैं? जनचित्त उसके शब्दों और कार्यों में अपनी उन भावनाओं और आशा-आकांक्षाओं का मूर्त रूप पाता है जिनके हल्के से स्पन्दन का अनुभव तो उसने किया है, लेकिन उसे व्यक्त नहीं कर सका है। प्रतिभावान व्यक्ति भी इस प्रकार के संबंध से लाभान्वित होते हैं। जाति के मस्तिष्क को अनुप्रेरित करने वाली अपरिपक्व भावनाओं और अस्पष्ट आशा-आकांक्षाओं से वह शक्ति ग्रहण करता है। इन दोनों ही दृष्टियों से रवीन्द्रनाथ प्रतिभा के अनूठे नमूने हैं। उनकी असाधारणता के सम्बन्ध में कोई प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन साथ ही, साधारण लोगों के जीवन से भी, जिन्हें उन्होंने प्यार किया था और जिनके लिए वे जिए थे, उनका संबंध गहरा और घनिष्ठ था।

 अपने जन्म के स्थान और काल की दृष्टि से भी रवीन्द्रनाथ सौभाग्यशाली थे। पश्चिमी जातियों के आगमन ने भारतीय जीवन की शान्त धारा में आलोड़न पैदा कर दिया था और समस्त देश में एक नये जागरण का संचार हो रहा था। इसके प्रारम्भिक धक्के ने भारतीय मानस में चकाचौंध पैदा कर दी थी और उस काल के प्रारम्भिक सुधारकों को पश्चिम का अन्धानुयायी बना दिया था। रवीन्द्रनाथ का जन्म तब हुआ जब प्रथम-प्रथम की यह अन्ध श्रद्धा खत्म हो रही थी, लेकिन पश्चिमी जातियों के लाए हुए आदर्श अभी भी क्रियाशील और शक्तिशाली थे। साथ ही विरासत में पाए हुए भारतीय मूल्यों के स्वीकार की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही थी। इसलिए यह काल एक ऐसी विशिष्ट प्रतिभा के आविर्भाव के लिए उपयुक्त था, जो अपने में पूर्वी और पश्चिमी मूल्यों का समन्वय कर सके।

 केवल काल ही नहीं बल्कि स्थान भी उनके उपयुक्त था। भारतवर्ष के अन्य भागों की अपेक्षा संभवतः बंगाल ने इस धक्के का अधिक अनुभव किया था। बंगाल में भी जीवन के इस नये स्पन्दन का प्रभाव सब से ज्यादा कलकत्ता में ही दीख पड़ा। रवीन्द्रनाथ की प्रतिभा के विकसित होने में उनका पारिवारिक वातावरण भी सहायक था। इनका परिवार भी भारतीय जागरण के अग्रदूतों में था। उसने प्राचीन विरासत को छोड़े बिना ही नये ज़माने की इस चुनौती को स्वीकार किया था। ब्राह्मण होने के नाते रवीन्द्रनाथ ने प्राचीन भारतीय परंपराओं को बड़े सहज और स्वाभाविक ढंग से अपना लिया। वे केवल साहित्य से ही प्रभावित नहीं हुए, बल्कि संस्कृति में पिरोए धार्मिक और सांस्कृतिक आदर्शों से भी। वे भूस्वामी-वर्ग के थे, इसलिए मध्ययुगीन मुग़ल दरबार की मिश्र संस्कृति को बिना किसी हिचक के स्वीकार कर सके थे। उन दोनों बातों में उन दिनों के अन्य ब्राह्मण ज़मींदारों से वे संभवतः भिन्न नहीं थे, लेकिन उनमें से बहुतों के विपरीत आधुनिक जगत् की नई धाराओं के प्रति भी वे सचेतन थे। प्राचीन और मध्ययुगीन भारतीय परंपराओं से सराबोर उनका परिवार एक ही साथ पाश्चात्य शिक्षा और जीवन-प्रणाली के अग्रणियों में भी था। रवीन्द्रनाथ की भारतीय विरासत अत्यंत समृद्ध थी और उनके मन में व्यक्त या अव्यक्त द्विधा या द्वन्द्व नहीं था। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा जाय, तो इस बात को समझना कोई मुश्किल न होगा। उनका समंजस व्यक्तित्त्व उस भेद-भाव से मुक्त था जो उनके बहुतेरे समकालीनों की शक्ति का ह्रास कर रहा था।

 सचमुच रवीन्द्रनाथ इस विषय में भाग्यशाली थे कि प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय मूल्यों को बिना छोड़े ही उन्होंने नवीन की चुनौती स्वीकार कर ली। जो लोग अपनी ही संस्कृति से विमुख हो चले थे और पश्चिम से प्राप्त प्रेरणा पर ही अधिक निर्भर रहने लगे थे, वे जातीय जीवन से उखड़-से गये। इसीसे उनकी प्रेरणाओं के स्रोतों में कमी हो गई और उनकी आध्यात्मिक पूँजी का ह्रास हो गया। यही कारण है कि उनमें से अनेक, प्रतिभाशाली और गुणज्ञ होने के बावजूद, भारतीय जीवन और साहित्य पर गहरा और स्थायी प्रभाव नहीं डाल सके। प्रतिभावान महान व्यक्ति जाति की अन्तरतम अनुप्रेरणाओं के साथ अपने-आपको एक करके जो शक्ति प्राप्त करता है, उसका उन लोगों में अभाव था।

 एक और दूसरी चीज़ थी जिससे रवीन्द्रनाथ को जन-जीवन के साथ अपने-आपको एक करने में सहायता मिली। जीवन के प्रारंभिक काल में पद्मा नदी के दियारों पर वे महीनों एक बजरे में रहे और इस प्रकार से देश की ग्रामीण संस्कृति के बड़े निकट संपर्क में आए। देश के उस अंचल में जीवन की जो अनुभूति उन्हें हुई, उसका मूल देश के आदिम और प्राचीन इतिहास में था। मध्ययुग में पनपने वाली नागरिक संस्कृति से कहीं अधिक गहराई तक यह संस्कृति लोगों के जीवन में अपनी जड़ें जमा चुकी थी। इस प्रकार से रवीन्द्रनाथ ने एक ऐसे जगत् में प्रवेश पाया जिससे शहर के लोग अपरिचित होते हैं। जातीय चेतना के कुछ गंभीरतम तलों में उनकी जड़ें जमीं। साधारण लोगों के भरे-पूरे जीवन का संस्पर्श ही उनकी अशेष सृजनी शक्ति के मूल में है और यही कारण है कि उन्हें प्रेरणा-शक्ति की कभी कमी नहीं हुई।

 रवीन्द्रनाथ के जीवन और उनकी रचनाओं पर विचार करते समय उनकी प्रतिभा की अद्भुत जीवनी-शक्ति से बार-बार चकित हुए बिना कोई नहीं रह सकता। वे प्रमुख रूप से कवि थे, लेकिन उनकी दिलचस्पियाँ कविता तक ही सीमित नहीं थीं। साहित्य के विविध क्षेत्रों में उनकी देन का संकेत हम पहले ही कर चुके हैं। साहित्य को यदि हम व्यापकतम अर्थ में भी लें, तो भी हम पाते हैं कि यह क्षेत्र उनकी समस्त उद्दामता को समेट नहीं सकता। वे संगीतज्ञ तथा बहुत बड़े चित्रशिल्पी भी थे। इसके अलावा धर्म और शिक्षा-संबंधी तत्त्व-चिंतन, राजनीति और सामाजिक सुधार, नैतिक उत्थान और आर्थिक पुननिर्माण के क्षेत्रों में भी उनकी देन बड़े महत्त्व की है। वस्तुतः इन क्षेत्रों में इनका कार्य इतने महत्त्व का है कि वे आधुनिक भारत के निर्माताओं में गिने जा सकते हैं।

 जीवन को पूर्ण और अविभाज्य इकाई मानने में ही रवीन्द्रनाथ की शक्ति निहित है। आदर्शों अथवा संस्कृतियों के द्वंद्व या विखंडन में उनकी शक्ति को कभी भी विभाजित नहीं किया। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कला और जीवन को उन्होंने अलग-अलग नहीं माना। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में सौन्दर्य-शास्त्र के एक नये सिद्धान्त ने यूरोप पर आधिपत्य जमा लिया था। बहुत लोग ऐसे थे जिनका कहना था कि कला के उद्देश्य से ही कला को अपनाना चाहिए; यह कोई जरूरी नहीं कि जीवन से उसका संबंध हो ही। हवाई महल या गजदंतमीनारें ही कलात्मक प्रयासों के प्रतीक और नमूने बन गई थीं। इस सिद्धान्त के पुजारी कहने लगे थे कि कवि और कलाकार सर्व प्रथम स्वप्नचारी है। रवीन्द्रनाथ ने इस मत को कभी भी स्वीकार नहीं किया कि कला जीवन से विच्छिन्न है। उन्होंने सौंदर्य को ढूँढ़ा तो, लेकिन जीवन की अभिव्यक्ति के रूप में ही। साथ ही उनका यह भी विश्वास था कि जीवन में माधुर्य तब तक नहीं आता जब तक कि वह सौन्दर्य से स्निग्ध न हो जाय। रवीन्द्रनाथ की दृष्टि में कवि-धर्म ही मानव-धर्म है।

(२)

 रवीन्द्रनाथ संसार के श्रेष्ठतम गीति-कवियों में गिने जाते हैं। संवेदनाओं की सचाई और भाव-चित्रों की सजीवता उनके पदों के संगीत से मिल कर एक ऐसे काव्य की सृष्टि करती है कि शब्दों के भूल जाने पर भी पद-संगीत पाठक के मन को विभोर किये रहता है। संवेदना, भाव-चित्र और संगीत का इस प्रकार से घुल-मिल जाना उनके प्रारंभिक जीवन से ही दीख पड़ने लगता है। 'निर्झरेर स्वप्नभंग' की रचना उस समय हुई जब वे बीस वर्ष के भी नहीं थे; लेकिन वह आज भी बंगला, और यदि सच पूछा जाय तो किसी भी भाषा की श्रेष्ठतम गीतियों में है। यह कविता केवल अपने संगीत और तीव्रता के कारण ही विशिष्ट नहीं है, बल्कि अपने भाव-चित्रों की सबलता के कारण भी है। और शायद इससे भी महत्त्व की बात यह है कि इसमें प्रकृति और मनुष्य को एकता के ऐसे योग-सूत्र में बाँधा गया है जो कभी टूटने वाला नहीं है। प्रकृति और मनुष्य का यह सायुज्य रवीन्द्रनाथ के काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता रहा है और यह बात उनमें उनके समस्त जीवन बनी रही।

 धरती को इतने प्राण-पण से प्यार करने वाला कोई दूसरा कवि शायद कभी नहीं हुआ। रात या दिन अथवा ऋतु-चक्र की शायद ही कोई भावभंगी या मुहूर्त ऐसा होगा, जिसका गान रवीन्द्रनाथ ने अपनी कविता में नहीं गाया हो। उनके काव्य के जादू ने बंगाल के दृश्य रूपों की छवि और उसकी ध्वनियों के दृश्यों को बारंबार अपने भीतर उतारउतार लिया है। कालिदास के ज़माने से ही भारतीय कवियों ने वर्षा ऋतु का गुण-गान अपूर्व उल्लास के साथ किया है। अपने सैकड़ों गीतों और कविताओं में रवीन्द्रनाथ ने वर्षा के बदलते रूपों का चित्रण किया है। वास्तव में वर्षा-ऋतु-संबंधी उनके गीत और उनकी कविताएँ हमारी जातीय विरासत का एक अंग हो गई हैं। वर्षा के आगमन के ठीक पहले झुलसी हुई धरती की प्रतीक्षा, पहले-पहल के दौंगरे के बाद भींगी मिट्टी से उठती सौंधी सौंधी गन्ध, नई-नई उगी घास के हरे अंकुरों में प्राणों का स्पन्दन, काले-काले बादल जो प्रातःकालीन स्वच्छ प्रकाश को धुँधला कर देते हैं तथा सायंकालीन छाया में जादू भर देते हैं, रात्रि की स्तब्धता में पड़ती वर्षा की अविराम टप टप; ये तथा सैकड़ों अन्य चित्र रवीन्द्रनाथ के मुग्धकारी काव्य में प्राणवान हो-हो उठते हैं। उनमें उन्होंने मानव-हृदय के सुख-दुःख का ताना-बाना बुन दिया है। यहाँ तक कि प्रकृति और मनुष्य एक-दूसरे की मनोदशा को प्रतिबिंबित करने लगते हैं और उनका पार्थक्य ओझल हो जाता है।

 रवीन्द्रनाथ ने दूसरी ऋतुओं को भी आँखों से ओझल नहीं होने दिया। शरद् और वसन्त के भिन्न-भिन्न भावों का चित्रण उन्होंने किया है। नव वसन्त का उद्दाम उन्माद, शिशिर ऋतु का बन्धनों से मुक्ति पाने का भाव, क्षिप्र गति से फूट-फूट उठे रंग और ध्वनियाँ आदि उनकी बहुत-सी कविताओं और गीतों में प्रतिबिंबित हैं। उनमें केवल वसन्त का आनन्द और शक्तिमत्ता ही नहीं बल्कि उसकी अनित्यता और क्षण-भंगुरता के भाव भी प्रतिफलित हुए हैं। पूर्णता और परिपक्वता के भाव लिए शरत् का मेघ-धुला आकाश रवीन्द्रनाथ की बहुत-सी कविताओं में विशेष रूप से प्रकट हुआ है। उनके एक अत्यन्त सफल गीति-नाट्य की रचना शरद् को ले कर ही हुई है, जिसमें कार्यसंकुलता के बोझ से मुक्ति पाने का भाव है। शीत और ग्रीष्मकाल को भी उन्होंने नहीं भुलाया। अपनी एक सुप्रसिद्ध कविता में रवीन्द्रनाथ ने ग्रीष्म को एक ऐसा कठोर तपस्वी माना है, जो साँसें रोके नवजीवन के आविर्भाव की प्रतीक्षा कर रहा है।

 रवीन्द्रनाथ को धरती से इतने अटूट बन्धन में केवल प्रकृति-सौन्दर्य ने ही नहीं बाँधा। उन्होंने धरती को इसलिए भी प्यार किया कि वह मनुष्य की वासस्थली है। अनगिनत कविताओं और गीतों में उन्होंने मनुष्य के प्रति अपने प्रेम को उड़ेला है। मनुष्य के हृदय की शायद ही कोई ऐसी संवेदना हो जिसने उनके हृदय को स्पंदित नहीं किया। सुख-दुःख से भरे मानव की गहन प्रेम-लीला की हजारों अभिव्यक्तियाँ कुछ ऐसे शब्दों में केलासित हो गई हैं कि जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। नैराश्य, मन की व्यथा तथा निष्फल प्रतीक्षा की असह्य पीड़ा का सजीव चित्रण पाठक को विस्मय में डाल देता है। उन्होंने मनुष्य के भावावेगों के चिरन्तन साथी के रूप में भी प्रकृति को चित्रित किया है। वे जानते थे कि जीवन नाना संघर्षों और प्रचेष्टाओं से भरा हुआ है और यह संसार त्रुटियों से रहित नहीं है, लेकिन उनका विश्वास यह भी था कि त्रुटियों, दोषों, क्लेशों और लालसाओं के कारण हमारा यह सांसारिक जीवन मनुष्य के लिए और भी प्रिय हो उठता है।

 रवीन्द्रनाथ ने संसार को केवल ऐसा रंगमंच ही नहीं माना, जहाँ मनुष्य जीवन में पूर्णता प्राप्त करने का प्रयास करता है, बल्कि उसे स्नेहमयी माँ के रूप में भी देखा है, जो जीवन के विविध अनुभवों में सारगर्भित अर्थ खोजने की साधना में लगे मनुष्य की निगरानी करती रहती है। रवीन्द्रनाथ कोई संन्यासी नहीं थे, और न ही वह कोई सुख-विलासी या इंद्रिय-सर्वस्ववादी ही थे। एक ओर तो उन्होंने उस आदर्श का जान-बूझकर प्रत्याख्यान किया, जो शरीर-धर्मों और नानाविध भोगों को अस्वीकार करता है, तथा दूसरी ओर उन्होंने केवल इंद्रिय-सुख या केवल भोग-लिप्सा को ही सब कुछ कभी नहीं माना। जीवन के सम्यक ज्ञान की प्राप्ति की साधना में सतत लगे रहने को ही वे जीवन का वास्तविक गौरव मानते थे। जीवन की इस परिपूर्णता को पाने की यह आकांक्षा बार-बार उनकी कविताओं में प्रकट हुई है। 'वसुन्धरा' नामक अपनी कविता में उन्होंने पृथ्वी के भरे-पूरे जीवन और सृष्टि की आदिम शक्ति के उफनते ज्वार के साथ मनुष्य के अंतरंग संबंध का गीत गाया है। अपनी एक सुप्रसिद्ध गीति 'स्वर्ग हइते बिदाय' (स्वर्ग से विदाई) में उन्होंने उच्छ्वासरहित शान्त स्वर्ग-सुख के साथ सांसारिक जीवन के अजस्र सुख-दुःख के ज्वार-भाटों की तुलना की है। रवीन्द्रनाथ ने हमें किसी प्रकार के भ्रम में नहीं रहने दिया कि वे किस जीवन को अधिक पसन्द करते हैं।

 रवीन्द्रनाथ मुख्यतः गीतिकार ही हैं, लेकिन उनके प्रकृति-प्रेम और जीवन के वैविध्य के साथ उनकी अन्तरंगता ने उनकी बहुतसी कविताओं में एक सुसमृद्ध नाट्य-गुण ला दिया है। रवीन्द्रनाथ के गंभीर मानव-धर्म और न्याय के लिए उनकी आकुलता को देखते हुए इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि वह सामाजिक एवं राजनीतिक विषयों की ओर भी आकृष्ट हुए। किसी प्रकार का कोई विशेष अनुभव भले ही सामयिक क्यों न रहा हो, लेकिन जिसको भी उन्होंने छू दिया है वह एक ऊँचे दरजे पर पहुँच गया है और सार्वभौम हो गया है। अपने ही लोगों के पूर्वग्रहों और कुसंस्कारों के खिलाफ़ उन्होंने कुछेक कटु व्यंग्यों की रचना भी की है। लेकिन उन रचनाओं में शायद ही कोई ऐसी हों जिनमें उनके भीतर की मानवता उनके रोष और क्रोध के स्तर से ऊपर न उठ गई हो। यहाँ तक कि उनकी देशभक्ति-पूर्ण कविताएँ भी समग्र मानव जाति की भावना से अनुप्रेरित हैं। रवीन्द्रनाथ के लिए देश-प्रेम एक सहज गुण था जिसमें अपने देश और देशवासियों के लिए प्रेम तो था, लेकिन दूसरे देशवालों के प्रति घृणा या हिंसा-भाव नहीं था, और इस प्रकार से वह देश-प्रेम नकारात्मक कभी नहीं था। इसका एक अत्यन्त सुन्दर उदाहरण उनकी कविता 'गुरु गोविन्द' में मिलता है। इसमें अपने देश तथा देशवासियों के लिए उनका गंभीर प्रेम समग्र मानव जाति के प्रति प्रेम की गहराई में उतर आता है। रवीन्द्रनाथ ने इस बात को कभी भी स्वीकार नहीं किया कि जिसमें मानवीय तत्त्व है वह भी कभी उनके लिए विदेशी हो सकता है। अपनी सुप्रसिद्ध कविता 'प्रवासी' में उन्होंने कहा है कि सभी जगह मेरा घर है और संसार के सभी हिस्से में मेरा देश है। समग्र मानव-जाति के साथ एकात्मबोध का यह भाव बड़े सुन्दर ढंग से हमारे राष्ट्रीय गीत में प्रकट हुआ है। इसमें रवीन्द्रनाथ ने भारत-भाग्य-विधाता के रूप में समस्त संसार के जनगणमन-अधिनायक का आह्वान किया है।

 मनुष्य के प्रति रवीन्द्रनाथ का यह प्रेम अनजाने तथा अपरिहार्य रूप से भगवान् के प्रति प्रेम का रूप ले लेता है। हम यह देख चुके हैं कि उनकी कल्पना में जीवन की अभिरुचि का जो विकसन हुआ है, उसमें प्रकृति और मानव एकाकार हो गए हैं। उन्होंने यह कभी भी नहीं सोचा कि भगवान् मनुष्य के जीवन से दूर और अलग की वस्तु हैं। उनके लिए प्रेम ही भगवान् था। सन्तान के प्रति माता का वात्सल्य अथवा प्रेमिका के प्रति प्रेमी का प्रेम उस महत् प्रेम के उदाहरण-मात्र हैं और यह प्रेम ही परमात्मा है। और यह प्रेम केवल रहस्यवादी भाव-विह्वलता में ही नहीं प्रकट होता बल्कि साधारण मनुष्य की नित्य-प्रति की जीवन-यात्रा में भी प्रकट होता है। रवीन्द्रनाथ ने बार-बार कहा है कि जीवन के सहज साधारण संबंधों में और नित्यप्रति की उस कार्यावलि में, जिन पर कि संसार टिका हुआ है, भगवान् को प्रत्यक्ष करना चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि रवीन्द्रनाथ वैष्णव काव्य और सूफ़ी-रहस्यवाद से अत्यधिक प्रभावित थे। उनकी कविता और उनके गीत ऐसे भाव-चित्रों से भरे हैं तथा उनका वक्तव्य विषय कुछ इस प्रकार का है कि हमें रहस्यवादियों के भावोल्लास की याद आ जाती है। लेकिन साथ-साथ उनमें दिन-प्रतिदिन की जीवनयात्रा की वास्तविकताओं के प्रति भी एक तीव्र जागरूकता है। उनके शब्दों और वाक्यांशों में प्रकाशन-भंगी की एक ऐसी यथार्थता है जो व्यक्तिगत अनुभव के बिना संभव नहीं। संवेदना के चित्रण की बारीकियाँ प्रकृति के भिन्न-भिन्न भाव-रूपों से इस प्रकार घुल-मिल गई हैं कि संसार के काव्य-साहित्य में वैसा चित्रण कम ही देखने को मिलता है।

 उनके रहस्यवादी काव्य की विशेषता की कुछ चर्चा कर लेनी चाहिए। जब 'गीतांजलि' का अंग्रेजी अनुवाद पहले-पहल प्रकाशित हुआ, तब युद्ध से जर्जर और तिक्त बने संसार में इसके प्रेम और शान्ति के संदेश के लिए पश्चिमी देशों ने इसका खूब जोरों से स्वागत किया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उस पतले-से संस्करण की कविताएँ एक गंभीर शान्ति की भावना से ओत-प्रोत हैं।

 इस पुस्तक में रवीन्द्रनाथ की कविता का जो विषय है, वह हमारी दैनंदिनी अभिज्ञता से ही लिया गया है। उनकी भाषा बोल-चाल की और भाव-चित्र सरल हैं। फिर भी सौंदर्य और सूदुर के इंगित का एक ऐसा गुण उनमें निहित है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। यूरोप तथा अमेरिका के पाठकों के लिए ये कविताएँ आश्चर्यमिश्रित हर्ष उत्पन्न करने वाले एक नये आविष्कार—जैसी थीं। लेकिन रवीन्द्रनाथ की रचनाओं को मूल बंगला में पढ़ने वाले पाठकों के लिए ये कविताएँ उनकी प्रारम्भिक रचनाओं की स्वाभाविक परिणतिमात्र थीं। प्रकृति और मनुष्य के प्रति उनका प्रेम अनजाने भाव से भगवान् के प्रति उनके प्रेम में विलीन हो गया था। उनके निजी जीवन की गंभीर व्यथा ने उनके भाव-चित्रों और वक्तव्य विषय को अत्यन्त मधुर और गहन बना दिया था। उनके अनुभव के विकासक्रम ने उन पर यह द्विधा-रहित सत्य प्रकट कर दिया था कि जीवन मात्र रहस्य से आवेष्टित है। मनुष्य-जीवन की करुणा और विस्मय ने उनकी रचनाओं में एक नई सहानुभूति और मर्मस्पर्शिता ला दी थी।

 रवीन्द्रनाथ की, अंतिम दिनों की, बहुत-सी गीतियों की एक विशेषता यह रही है कि वे अत्यन्त सहज-सरल हैं। प्रारंभिक काल की अपनी रचनाओं में उन्होंने संस्कृत के बहुत-से प्रसंगों और ध्वनिसाम्यों का अधिक-से-अधिक प्रयोग किया है। बहुत सी कविताओं में प्राचीन भारतीय साहित्य की वस्तु-योजना और भावभंगी का समावेश हो गया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने पुराने को नये साँचे में ढाला है, लेकिन फिर भी यह समझने में भूल नहीं हो सकती कि सुसमृद्ध भारतीय पुराण-साहित्य से उसका गहरा सम्बन्ध है। मनुष्य और परमात्मा के प्रति निवेदित अपनी कविताओं में उन्होंने सभी प्रकार के अलंकरण का परित्याग कर दिया है। मनुष्य की साधारण-से-साधारण परिस्थिति का भी उपयोग उन्होंने सत्य को अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए किया है। उनकी भाषा भी सर्व-साधारण की भाषा-जैसी सहज, सरल और स्पष्ट हो गई है। बाद के इन बहुत-से गीति-काव्यों और गीतों में हम अनुभूति के सामीप्य का साक्षात्कार अनुभव करते हैं। शब्द बिलकुल पारदर्शक और स्वच्छ हो गए हैं। विशुद्ध संगीत की ध्वनियों की नाईं उनमें ऐसी सबलता और स्पष्टता आ गई है, जिससे हम बहुधा अवाक्‌ रह जाते हैं।

 हम यह भी नहीं भूल सकते कि रवीन्द्रनाथ अपने समस्त जीवन में सत्य के निर्भीक और सच्चे खोजी रहे। उनकी बुद्धि के तेज ने प्रवंचना और पाखण्ड के बाह्य दिखावटी स्वरूप को, जिसका निर्माण हम अपने दैन्य को छिपाने के लिए करते हैं, छिन्न-भिन्न कर दिया है। उनकी रचनाओं की ऊर्जस्विता और शौर्य वाले गुण से वे लोग बहुत दूर तक अपरिचित ही हैं, जिन्होंने उन्हें मूल में नहीं पढ़ा है। इसका एक कारण यह है कि अनुवाद के लिए चुनी हुई रचनाएँ ही ली गई हैं; और उनमें कुछ ऐसी कविताएँ छाँट दी गई हैं जिनसे रवीन्द्रनाथ की बुद्धि के पैनेपन और प्रसार-मात्र का पता चल पाता। दूसरा कारण यह है कि बहुत से अनुवाद छाया-मात्र हैं, और उनमें मूल की खुरदरी और दुर्दम शक्तिमत्ता प्रायः खो-सी गई है। मनुष्य तथा उसकी नियति के प्रति रवीन्द्रनाथ की दिलचस्पी उनके जीवन के प्रारंभिक काल से ही दीख पड़ने लगती है। 'सन्ध्या संगीत' में भी, जो कि उनके प्रथम-प्रथम के काव्य-संग्रहों में है, हम उन्हें मानव के अस्तित्व की समस्या को ले कर उलझते हुए पाते हैं। मनुष्य का स्वार्थ जब प्रेम का बाना पहन लेता है तो उससे एक असुन्दरता-सी उत्पन्न होती है। अल्पवयस्क तरुण होते हुए भी रवीन्द्रनाथ ने इस असुंदरता का वर्णन किया है। 'नैवेद्य' तक आते-आते उनमें यह दार्शनिक पुट गंभीर और गाढ़ हो उठा है, लेकिन बौद्धिकता और भावावेग के समन्वय का सुन्दरतम रूप हम शायद 'बलाका' में ही पाते हैं। 'बलाका' की कुछ कविताएँ विचार और संवेदना के समन्वय को प्रकाश में लाती हैं। और इस समन्वय के फलस्वरूप दर्शनशास्त्र के सिद्धान्त विशुद्ध गीति-काव्य का रूप ले लेते हैं।

 अपने जीवन के प्रायः अन्तिम दिनों तक रवीन्द्रनाथ नई अनुभूतियों और नई अभिव्यक्तियों के लिए सतत-प्रयासी रहे। साठवें साल के बाद तो उनकी गीति-रचनाओं की जैसे बाढ़-सी आ गई थी। और वे रचनाएँ उनकी युवावस्था के प्रारम्भिक काल की उत्कृष्ट रचनाओं तक से होड़ लगा सकती हैं। इस काल की कविताओं में गंभीर संवेदना और भावोद्वेग का एक नया सुर है जो दुख से तपकर विशुद्ध हो चुका है। इस दशक में व्यक्तित्व के जो घनिष्ठ सुर और निजत्व-भाव मिलते हैं, उसका स्थान अगले दशक में एक गहन एवं गंभीर मानव-धर्म ने ले लिया है। पहले की उनकी रचनाओं में भाव और भाषा का जो प्राचुर्य था, उसके स्थान पर अब भाव और भाषा की एक अपूर्व किफ़ायतशारी देखने को मिलती है। अन्त की उनकी कुछ कविताओं में सामर्थ्य और आत्म-विश्वास का एक ऐसा भाव है जिसका बुद्धि-तेज हमें चकित कर देता है। इसके अलावा जीवन के चरम लक्ष्य के संबंध में उन्होंने कुछ प्रश्न नये सिरे से भी उठाए हैं और साथ ही बड़े शान्त और स्निग्ध भाव से जीवन को उसकी सभी न्यूनताओं और संभावनाओं के साथ स्वीकार किया है।

(३)

 रवीन्द्रनाथ ने एक हज़ार से अधिक कविताएँ और दो हज़ार गीत लिखे हैं। वे मुश्किल से पन्द्रह वर्ष के रहे होंगे जब उनकी प्रथम पुस्तक प्रकाश में आई और अन्तिम कविता उनकी मृत्यु के ठीक पहले की लिखी हुई है। इस बात से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी रचनाओं का चुनाव करना इतना कठिन क्यों है। वास्तव में साहित्यिक रचनाओं का संग्रह तैयार करना बराबर ही मुश्किल होता है। कोई भी संग्रह संकलनकर्ता के अपने ही विचारों और रुचि के अनुसार होता है और ऐसी आशा कोई भी नहीं कर सकता कि उसकी पसन्द सबको संतुष्ट करेगी। यही कारण है कि कोई भी संग्रह हमें पूरा संतोष नहीं दे पाता। अगर गद्य के लिए यह बात सत्य हो तो काव्य के लिए तो यह और भी अधिक सत्य है। भिन्न-भिन्न पाठकों की भिन्न-भिन्न रुचि होती है। इसके अलावा किसी कविता का आवेदन पाठक के अपने निजी अनुभव तथा मनोदशा पर भी निर्भर करता है। कोई एक ही कविता अगर किसी पाठक के हृदय को छू लेती है तो दूसरे पाठक को बिलकुल निरुत्साह छोड़ जाती है। यहाँ तक कि एक ही पाठक भिन्न-भिन्न काल में तथा मन की भिन्न-भिन्न स्थितियों में अलग-अलग ढंग से प्रभावित होता है। चाहे चुनाव कितनी भी बुद्धिमत्ता से क्यों न किया गया हो और संकलनकर्ता कितना भी विवेकशील क्यों न हो, यह असंभव सा ही है कि कोई ऐसा संग्रह निकले जो सदा-सर्वदा सभी पाठकों को सन्तुष्ट कर सके।

 रवीन्द्रनाथ की रचनाओं का परिमाण, विस्तार और वैचित्र्य एक ओर तो चुनाव के काम को कठिन बना देते हैं तो दूसरी ओर चुनाव को और भी आवश्यक बना देते हैं। महान-से-महान कवि भी सब समय अन्तःप्रेरणा के शिखर पर नहीं रह सकता। समय-समय पर उसे भी भारमुक्त होना पड़ता है और कभी-कभी तो उसे घाटी में भी उतर आना पड़ता है। औसत पाठक को न समय मिलता है और न उसमें वैसी प्रवृत्ति ही होती है कि वह महान साहित्यकार की सभी रचनाओं को पढ़ने का कष्ट उठा, उसकी सर्वोत्कृष्ट कृति को खोज निकाले और उसका आनंद ले। विदेशी पाठकों के बीच रवीन्द्रनाथ की ख्याति को कुछ धक्का लगा है, क्योंकि मुख्य रूप से उनकी रचनाओं का एक ही पहलू उनके सामने रखा गया है और यह बात भी नहीं कि वह भी सब समय कोई उनका सबसे महत् और सबसे श्रेष्ठ पहलू ही हो। यह बात केवल विदेशी पाठकों पर ही लागू नहीं होती, बल्कि बंगाल के बाहर के भारतीय पाठकों पर भी लागू होती है। दो अर्थों में यह एक राष्ट्रीय दुर्भाग्य है। एक तो इस अर्थ में कि भारतवर्ष के बहुसंख्यक लोग भारतवर्ष के सबसे बड़े कवि की कुछ सर्वोत्कृष्ट रचनाओं से अपरिचित ही रह गए हैं और दूसरे इस अर्थ में कि भारतवर्ष की दृष्टि का प्रसार कहाँ तक है, इसे समझने और जानने का अवसर बाहर की दुनिया को नहीं मिला है। इसलिए यह आवश्यक है कि राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय हित के लिए रवीन्द्रनाथ की रचनाओं का एक नया संग्रह प्रस्तुत किया जाय। साहित्य अकादेमी ने इस चुनौती को स्वीकार किया है और वह रवीन्द्रनाथ की चुनी हुई कविताओं, गीतों, नाटकों, उपन्यासों, कहानियों और निबंधों के आठ अलग-अलग संग्रह निकालने जा रही है। सभी भारतीय भाषाओं के पाठकों को रवीन्द्रनाथ की प्रतिभा के शौर्य, पैनेपन और विस्तार का सुन्दर-सा ज्ञान करा देना उनका पहला ध्येय होगा। उनका एक दूसरा अतिरिक्त ध्येय होगा कि वे संसार के दूसरे देशों के पाठकों को वही उपहार भेंट करेंगे।

 १०१ कविताओं का यह संग्रह प्रस्तावित चुनी हुई रचनाओं की पहली किस्त है। ये कविताएँ पहले तो देवनागरी अक्षरों में प्रकाशित की जा रही है और बाद में भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में अनूदित होंगी। और उसके बाद वे संसार की प्रमुख भाषाओं में भी अनूदित हो सकती हैं। उत्तर भारत की सभी भाषाओं में एक ऐसा निकट का संबंध है कि वे पाठक भी, जो बंगला नहीं जानते—जिस भाषा में रवीन्द्रनाथ ने लिखा था—अगर किसी कविता को पढ़ सकें तो वे उसे समझ ले सकते हैं। यह निकट का संबंध केवल भाषा में ही नहीं है, बल्कि समान परंपरा, समान अनुभूति, समान कथा-प्रसंग से उत्पन्न भावावेगों और मनोभावों में भी है। दक्षिण भारत की भाषाओं से अलबत्ता मौखिक रूप में निस्सन्देह बहुत बड़ा अन्तर है, लेकिन आवेग, अनुभूति और परंपरा के क्षेत्र में दोनों का संबंध अत्यन्त घनिष्ठ है। अनुवादों की सहायता से प्रायः सभी भारतीय भाषाओं के पाठक देवनागरी अक्षरों में प्रकाशित रवीन्द्रनाथको मौलिक रचनाओं के सौन्दर्य और अभिव्यंजना को ठीक-ठीक परखने में समर्थ हो सकेंगे। बाद में जब इन कविताओं का अनुवाद संसार की अन्य भाषाओं में होगा, तब, ऐसी आशा की जा सकती है कि, अब तक के संग्रहों और अनुवादों से वे अधिक प्रतिनिधि-मूलक होंगी और रवीन्द्रनाथ को कुछ अधिक समझने में सहायक सिद्ध होंगी।

 १०१ की संख्या कुछ ख़ास पवित्र नहीं है। अगर कोई पाठक यह कहे कि यह संख्या दुगुनी भी कर दी जाय तो इसमें केवल उत्कृष्ट रचनाएँ ही रहेंगी, तो कम-से-कम मैं उस वक्तव्य को ग़लत नहीं मानूंगा। और मैं इस आक्षेप को भी स्वीकार कर लूंगा कि उस संग्रह में कुछ ऐसी कविताएँ बाद में पड़ गई हैं जो संग्रह की कविताओं से और भी अधिक अच्छी नहीं तो कम-से-कम उन-जैसी अच्छी तो हैं ही। इसमें मतभेद की गुंजाइश बराबर बनी रहेगी कि किसी महान कवि की कौन-सी एक सौ या दो सौ कविताएँ उत्कृष्ट हैं। वैसे इस संग्रह के बारे में दो बातों का दावा मैं अवश्य करूँगा। इसमें कोई भी ऐसी कविता नहीं है जो प्रथम कोटि की न हो। और यह भी कि संग्रह प्रतिनिधि-मूलक है और इसमें इस बात का ध्यान रखा गया है कि रवीन्द्रनाथ की भिन्न भिन्न शैलियों और मनोदशाओं का परिचय देने वाली कुछ कविताएं नमूने के तौर पर आ जायँ। लेकिन एक बात की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है कि गीत जान-बूझ-कर इस संग्रह से छोड़ दिए गए हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि रवीन्द्रनाथ के संगीत-परक गीतों में उनके कुछ उत्कृष्ट काव्य भी हैं, लेकिन गीतों का एक संग्रह अलग से निकालने की योजना है, इसलिए इस संग्रह में उन्हें छोड़ देना ही ठीक समझा गया है।

 इस संग्रह का प्रारंभ 'निर्झरेर स्वप्नभंग' से हुआ है जिसकी चर्चा हम कर चुके हैं। रवीन्द्रनाथ ने इस कविता को अपनी ही काव्यप्रतिभा का जागरण माना था। इसमें गीति-काव्य का जो सुर है उसे रवीन्द्रनाथ के लंबे कवि-जीवन में बार-बार आमंत्रित किया गया है। कभी-कभी यह सुर रहस्यात्मक उत्कण्ठा और तीव्र इच्छा से रंग गया है, जैसा कि हम 'सोनार तरी' (संख्या ८) अथवा 'निरुद्देश यात्रा' (सं॰ १५) में देखते हैं। और कभी-कभी तो यह सुर गंभीर मानवीय वासना और अभिप्राय से ओत-प्रोत हो उठा है; जैसे 'येते नाहि दिब' (सं॰ ११), 'वसुन्धरा' (सं॰ १४) अथवा' भारततीर्थ' (सं॰ ६०) में। कभी-कभी संगीत ही प्रधान हो उठा है और उस समय ऐन्द्रियिकता और बौद्धिकता का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है जैसे 'उर्वशी' (सं॰ १९), 'छवि' (सं॰ ६५) अथवा 'चञ्चला' (सं॰ ६७) में। इस समन्वय का एक अत्यन्त उत्कृष्ट नमूना 'प्रहर शेषेर आलोय राजा' (सं॰ ८७) नामक टुकड़े में मिलता है।

 रवीन्द्रनाथ की दृष्टि में मनुष्य का सबसे बड़ा कृतित्व इस बात में है कि वह अपनी निजी व्यथा और संसार की विकराल वेदना पर विजय प्राप्त करें। स्वार्थपरता के कारण उत्पन्न होने वाले दुःखों और वैयक्तिक कलहों पर मनुष्य जय-लाभ करता है। वह उस गंभीर वेदना से भी ऊपर उठता है जो जीवन की क्षणभंगुरता का अनिवार्य परिणाम है। 'बिदाय-अभिशाप' (सं॰ १३) में कच जब देवयानी के शाप के बदले उसे वरदान देता है, उसकी मंगलकामना करता है तो वह सचमुच में मनुष्य हो उठता है। 'ब्राह्मण' (सं॰ १७) में गुरु ने पाया है कि मनुष्य का महत्त्व वंश-गौरख में नहीं, बल्कि इस बात में है कि बिना किसी दुराव, बिना किसी अन्तर की दुविधा के वह सत्य को स्वीकार करता है। 'येते नाहि दिब' (सं॰ ११) में कवि ने इस बात को समझा है कि कभी-कभी एक छोटा बच्चा भी मानव-प्रकृति के सहज सत्य को प्रकट कर सकता है, जब कि अधिक समझदारी का भान करने वाले स्त्री-पुरुष इसमें असफल हो सकते हैं। 'गान्धारीर आवेदन' (सं॰ ३१) तथा 'कर्णकुन्तीसंवाद' (सं॰ ३०) में स्नेह, आकांक्षा अथवा भय के ऊपर मनुष्य के गौरव की विजय की बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। मानवीय संबंधों के सौन्दर्य तथा करुण भाव को हम उनकी शिशुसंबंधी कवितामाला में पाते हैं जो 'जन्मकथा' (सं॰ ४६) से प्रारंभ होती है। .

 रवीन्द्रनाथ ने प्रायः ही परंपराभुक्त प्रसंगों और विषयों को लिया है। प्राचीन भारतीय साहित्य उनका उपजीव्य रहा है। वैसे तो उन्होंने जिस चीज का भी स्पर्श किया है, उसमें रूपान्तर ला दिया है। कालिदास के प्रति रवीन्द्रनाथ की अत्यधिक श्रद्धा थी और उनसे वे विमुग्ध होते रहे हैं, लेकिन जब उन्होंने उनसे भी कोई प्रसंग या विषय ग्रहण किया है तो उसको इस ढंग से मोड़ा है कि उनकी अपनी रचना प्रधान रूप से आधुनिक हो गई है। रवीन्द्रनाथ के लिए 'मेघदूत' (सं॰ ६) किसी पौराणिक यक्ष का अपनी प्रिया को भेजा हुआ संदेश नहीं है, बल्कि प्रत्येक युग और स्थान के सभी प्रेमियों की तीव्र उत्कण्ठा की अभिव्यंजना है। 'अहल्यार प्रति' (सं॰ ७), 'भ्रष्ट लग्न' (सं॰ २५) तथा 'स्वप्न' (सं॰ २६) में एक लुप्त हो चुके अतीत के वातावरण को उन्होंने फिर से लौटाया है, लेकिन यह स्पष्ट कर दिया है कि अतीत फिर से हम लोगों के आज के आवेगों और मनोदशाओं में ही बस रहा है। अतीत और वर्तमान तथा पुराण और अनुभव के संबंध को जितने कौशल से 'मदनभस्मेरपर (सं॰ २७) जैसी कविताओं में प्रतिष्ठित किया गया है, वह शायद ही कहीं देखने को मिले। अतीत की परंपराओं को फिर से ला कर उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करने की प्रवृत्ति उनकी अंतिम कविताओं में देखने को नहीं मिलती। 'तपोभङ्ग' (सं॰ ७७) में एक प्राचीन पौराणिक कथा की एक अत्यन्त ही मार्मिक व्याख्या की गई है और उसे सुन्दर रूप दिया गया है। इस कविता में संन्यास के ऊपर नूतन जीवन के उफान की अन्तिम विजय की घोषणा की गई है।

 रवीन्द्रनाथ ने केवल विषय और प्रसंग को ले कर ही प्रयोग नहीं किये बल्कि काव्य के रूप-विधान को ले कर भी किये हैं। अपने पूर्ववर्तियों के प्रभाव से वे कभी आतंकित नहीं हुए। बंगला के परंपराभुक्त वैष्णब-काव्य से उन्होंने बिना संकोच लिया है और स्वयं ही बिहारीलाल-जैसे बंगाली कवियों का आभार माना है। अपने वातावरण अथवा युग से कोई अछूता नहीं रह सकता। इस तरह के प्रयास सफल कम ही हो पाते हैं और वास्तव में ऐसा प्रयास साधारणतः कवि में आत्म-विश्वास के अभाव का लक्षण-मात्र है। रवीन्द्रनाथ का विकास अपने समसामयिक समाज के प्रभाव में ही हुआ; लेकिन विकास की इस प्रक्रिया ने ही उन्हें ऐसा समर्थ बना दिया कि समय पा कर वे इन सबसे ऊपर उठ सके। एक बार माध्यम के संबंध में निश्चय कर लेने के बाद अपनी कविता के वक्तव्य-विषय और रूपविधान दोनों में ही वे प्रयोग करने में हिचकते नहीं थे और उन अनुभवक्षेत्रों से प्रेरणा ग्रहण करते थे जिनकी ओर पहले बंगला-काव्य में ध्यान नहीं दिया गया था। सच तो यह है कि उन्होंने इस विवाद को बहुत दूर तक खत्म ही कर दिया कि कविता का विषय क्या है और क्या नहीं है। 'क्षणिका' में हम उन्हें ऐसे प्रसंग का चुनाव करते हुए देखते हैं जिसमें प्रथम दृष्टि में किसी भी प्रकार की काव्यगत संभावना नहीं दीख पड़ती, लेकिन अपनी प्रतिभा के बल पर वे उसे सामान्य धरातल से ऊपर उठा देते हैं और सौन्दर्य के प्रकाश से उसे प्रकाशमय बना देते हैं। वर्ड्सवर्थ का यह दावा कि गंभीरतम अनुभूति को सहज ढंग से अभिव्यक्त किया जा सकता है और दैनंदिन जीवन की वास्तविकताओं को रहस्य के आलोक से आलोकित किया जा सकता है, रवीन्द्रनाथ की उस काल की बहुत सी कविताओं द्वारा समर्थित हो जाता है। हास्य और रुदन, विनोद और आवेग घुल-मिल कर अभिलाषा, उत्कंठा और तीव्र उपहास का अपरूप संयोग सम्पन्न कर देते हैं। 'कृष्णकली' (सं॰ ३५), 'यथास्थान' (सं॰ ३९) और 'सेकाल' (सं॰ ४०) आदि कविताओं में मनुष्य की चित्त-वृत्ति, आवेग और संवेदना का आश्चर्यजनक पारस्परिक घात-प्रतिघात देखने को मिलता है।   रवीन्द्रनाथ की प्रतिभा प्रधान रूप से गीति-काव्यात्मक थी, लेकिन कभी-कभी हम उनमें समाज की बुराइयों के विरुद्ध अगर कटूक्ति नहीं तो व्याजोक्ति का तीव्र स्वर अवश्य पाते हैं। वे जानते थे कि प्रचलित धारणा के अनुसार आध्यात्मिकता के संबंध में जो भारतीय दावा है, वह बहुत-कुछ तो विचार करने की अक्षमता अथवा अनिच्छा के सिवा और कुछ नहीं है। अपनी कविता 'हिं टिं छट्' (सं॰ ९) में रवीन्द्रनाथ ने निर्मम हो कर गंभीरता के उस घटाटोप को छिन्न-भिन्न कर दिया है जो बहुधा एक खाली दिमाग को छिपाए रहता है। 'दुइ पाखी' (सं॰ १०) में उन्होंने उन निष्प्राण परंपराओं और अर्थहीन आधारों की खिल्ली उड़ाई है, जिन्होंने जीवन को जटिल कर रखा है। 'देवतार ग्रास' (सं॰ २८) में उन्होंने बद्धमूल धारणा और मनुष्य के धर्म के बीच होने वाले संघर्ष का चित्रण किया है और दिखलाया है कि किस प्रकार से बाह्याचार के ऊपर सत्य की अन्तिम विजय होती है। बाह्याचारों में मनुष्य सत्य को खो देता है। 'अपमानित' (सं॰ ६१) और 'धूलामन्दिर' (सं॰ ६२) में हम मनुष्य की अवमानना के विरुद्ध घृणा और रोष के अन्तर को पाते हैं। जीविका-निर्वाह के लिए अपनाई गई वृत्ति के आधार पर किसी को छोटा और किसी को बड़ा मानने को वे कदापि तैयार नहीं थे।

 कुछ आलोचक यह आपत्ति उठा सकते हैं कि इस संग्रह में उनके उत्तरकालीन जीवन की कविताएँ ही अधिक हैं। इस अभियोग में शायद कुछ तथ्य भी है, क्योंकि इस संग्रह में सन् १९२८ ई॰ से सन् १९४१ ई॰ तक की २० से अधिक कविताएँ हैं और सन् १८८२ ई॰ से सन् १९२४ ई॰ तक की केवल ८० ही कविताएँ ली गई हैं। इसका एक कारण यह है कि अभी तक के मूल बंगला के संग्रह में अथवा दूसरी भाषाओं के अनुवादों में प्रारंभिक काल की रचनाओं का तो आम तौर पर बहुत-कुछ बेहतर और अधिकतर समावेश हो चुका है। उत्तरकालीन रचनाओं से कुछ अधिक चुनाव करने का दूसरा कारण यह है इस काल की कविताओं में विचार और अभिव्यंजना की दृष्टि से अधिक संयम से काम लिया गया है। टेकनीक की श्रेष्ठता और विचारों की गहनता ने मिल कर इस काल की कविताओं को अधिक गंभीर और मार्मिक बना दिया है। अपनी युवावस्था के प्रारंभिक दिनों में रवीन्द्रनाथ ने प्रेम-संबंधी बहुत-सी सुन्दर कविताएँ लिखी हैं, लेकिन वे जीवन के ऊपरी तल को ही छूने वाली लगती हैं तथा उस गहराई तक नहीं जातीं जहाँ मनोराग की आग जल रही होती है। समय-समय पर आलोचकों ने कहा है कि प्रेम की अनुभूति की अपेक्षा वे शब्दों और अभिव्यक्ति के ढंग पर अधिक ध्यान देते रहे। लेकिन यह सम्पूर्ण सत्य नहीं है, क्योंकि हमारे सामने 'रात्रे ओ प्रभाते' (सं॰ २२) अथवा 'स्वर्ग हइते बिदाय' (सं॰ २०) की तीव्र लालसा भरी पंक्तियाँ हैं। अगर इन कविताओं को कोई उनकी उत्तरकालीन कविताओं के पास रखें तो यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि बाद की कविताओं में गहराई और वज़न है जिनका पहले की कविताओं में अपेक्षाकृत अभाव है। किसी भी भाषा में कम ही कविताएँ ऐसी होंगी जो संयम और मनोराग की गाढ़ता में 'पूर्णता' (सं॰ ७८) अथवा 'आशंका' (सं॰ ८०) की बराबरी कर सकें।

 तीव्रता और प्रगाढ़ता की अभिवृद्धि के अलावा उनकी उत्तरकालीन कविताओं में जीवन के रहस्यों के प्रति उनका आकर्षण उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ दीख पड़ता है। प्रचुर समृद्धि और वैचित्र्य के होने पर भी बंगला-काव्य में प्रादेशिकता का गुण प्रायः ही दीख पड़ता है। यहाँ तक कि कुछ अत्यन्त सुन्दर वैष्णव गीति-काव्य भी आंचलिक वातावरण से इतने अधिक ओत-प्रोत हैं कि उसे छोड़ कर उनके लिए ऊपर उठना कठिन है। रवीन्द्रनाथ का यह एक बहुत बड़ा कृतित्व है कि उन्होंने सार्वभौमिकता और शिष्टता के एक नये सुर को बंगला काव्य में प्रविष्ट कराया। इसीलिए उनकी कविताएँ जिस प्रकार से बंगाल के किसी आदमी को प्रभावित करती हैं, ठीक उसी तरह से अमेरिका या यूरोप के निवासी को भी। सार्वभौमिकता और शिष्टता का यह सुर उनके लंबे जीवन में उत्तरोत्तर गहरा होता गया और उनके अन्तिम दिनों की कविताओं में तो वह और भी स्पष्ट दीखता है। मनुष्य के प्रयत्न और प्रचेष्टाएँ, उसकी आशाओं और असफलताओं तथा अपनी आकांक्षाओं और नित्य-प्रति के कार्य के साथ अपने को एक कर देने के उसके प्रयास भी इन उत्तरकालीन कविताओं में परिलक्षित होते हैं। अपने अन्तिम दिनों में रवीन्द्रनाथ को जो शारीरिक कष्ट भोगने पड़े थे, उसकी अभिव्यक्ति उन कविताओं में इतनी स्पष्टता और तीव्रता से की गई है, जिसकी समता शायद ही कहीं देखने को मिले। 'अवसन्न चेतनार गोधूलिवेलाय' (सं॰ ८८) अथवा 'ऋणशोध' (सं॰ ९१) आदि कविताओं में भाषा और अभिव्यक्ति का जो संयम दीख पड़ता है उसके साथ उनकी युवावस्था के प्रारंभिक काल की रचनाओं के प्राचुर्य और बेफ़िक्री का बहुत बड़ा अन्तर है। पिछले दिनों की कविताओं में न केवल संयम और किफ़ायतशारी का ही भाव है बल्कि उनमें पूर्णता और भरा-पूरा होने का भी भाव है। लगता है जैसे संसार और जीवन के साथ उन्होंने समझौता कर लिया है। संसार में दुःख और कष्ट हैं, जीवन में मृत्यु की छाया सदा ही पीछे लगी रहती है, लेकिन इन सभी कमियों के बावजूद जीवन अर्थपूर्ण है और अपने-आप में उसका एक महत्त्व है। 'ए जीवने सुन्दरेर' (सं॰ ९५), अथवा 'मधुमय पृथिवीर धूलि' (सं॰ ९६) आदि कविताओं में मृत्यु की घाटी की छाया में जीवन की विजय का भाव है।

 किसी कवि के मानसिक विकास पर प्रकाश डालना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। अनुभव के दूसरे-दूसरे क्षेत्रों में विकास का एक क्रम होता है, जो कुछ नियमों का अनुसरण करता है। लेकिन जहाँ तक काव्य का प्रश्न है, अन्तःप्रेरणा में रहस्यात्मक ढंग से ज्वार-भाटा आता रहता है और उसकी व्याख्या नहीं हो सकती। कभी-कभी किसी कवि की उत्कृष्ट कविताएँ तो उसकी युवावस्था के प्रारंभिक काल की लिखी हुई होती हैं और प्रौढ़ावस्था की रचनाएँ साधारण और पारंपरिक होती हैं। रवीन्द्रनाथ भी इसके अपवाद नहीं हैं। उनकी प्रारंभिक काल की कुछ कविताएँ अति उत्कृष्ट हैं और बाद की कुछ कविताएँ ऐसी हैं मानो वे बिना किसी प्रेरणा के लिखी गई हों। चाहे जो हो, अस्सी वर्ष की अपनी लंबी उम्र में अपनी अन्तःप्रेरणा को उन्होंने जिस प्रकार से जिलाए रखा, वह उन्हें युग-युग तक जीवित रहने वाले महान कवियों की कोटि में रख देता है। जिस उद्दाम तेज, उद्यम और जीवनी-शक्ति से वे ऐसा करने में समर्थ हो सके उसके पीछे उनके व्यक्तित्व की पूर्णता और अखण्डता है। उन विभिन्न सूत्रों को उन्होंने अपने में एकत्र कर लिया था जिनसे आज के भारत की समन्वयात्मक संस्कृति का निर्माण हुआ है। यह गौरव उन्हींको प्राप्त है कि उन्होंने भारत के बहुमुखी जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं को लिया और उन्हें आलोकित किया। संस्कृत-साहित्य से उन्होंने बहुत-कुछ लिया और बंगला की शब्दावलि और छन्द को समृद्ध किया। वैष्णव-गीति-काव्यात्मकता और सूफी रहस्य-भावना के पूर्ण एकीकरण का श्रेय उन्हींको प्राप्त है। मध्य युग की सामन्तशाही प्रथा में जिस दरबारी ढंग का विकास हुआ, उसकी व्याख्या करने में उन्होंने पूरी सहानुभूति और कल्पना से काम लिया है। इसीके साथ सर्व-साधारण के जीवन से भी उन्होंने ऐसा बहुत-कुछ लिया, जिसका उपयोग पहले नहीं हुआ था। बंगाल के गाँवों के भाव-चित्रों और प्रतीकों का तानाबाना उनकी कविता में बड़े कौशल से बुना गया है। बंगला-साहित्य में उन्होंने यूरोप के आदर्शों और चिन्तन का भी सुन्दर सामंजस्य उपस्थित किया। 'बलाका' संग्रह की बहुत-सी कविताओं में शक्ति और गति के भाव का समावेश यूरोप की प्रेरणा कहा जा सकता है। मनुष्य-जाति ने अति प्राचीन काल में ही यह समझ लिया था कि सब-कुछ क्षण-स्थायी है। इसे सभी वस्तुओं में छिपी गति का प्रतीक बना कर रवीन्द्रनाथ ने इसमें एक नया अर्थ भर दिया है।

 थोड़े में, प्राचीन भारतीय साहित्य की विरासत, मुग़ल दरबार के विशिष्ट तौर-तरीके, बंगाल के सर्व-साधारण के जीवन के सहज सत्य और आधुनिक युरोप की उद्दाम शक्ति और बौद्धिक सबलता के संमिश्रण से रवीन्द्रनाथ की कविता का प्रादुर्भाव हुआ। वे सभी युगों और सभी संस्कृतियों के उत्तराधिकारी हैं। इन भिन्न-भिन्न सूत्रों और प्रसंगों के संयोग ने उनकी कविता को लोच, सार्वभौमिकता और अशेष हृदयग्राहिता प्रदान की है।

२२ अप्रेल १९५७
हुमायून कबिर

 इस खंड के लिप्यंतर तथा शब्दार्थ श्री राम पूजन तिवारी, हिंदी भवन, शांति निकेतन, ने प्रस्तुत किये हैं। प्रत्येक कविता के साथ उसकी रचना-तिथि दी गयी है। जिन कविताओं की रचना-तिथियाँ उपलब्ध नहीं हैं, उनके साथ उनके पुस्तक-रूप में प्रकाशन की तिथि बड़े कोष्ठकों में दी गई है। इन तिथियों को श्री पुलिनविहारी सेन तथा श्री जगदिन्द्र भौमिक ने मिला कर देख लिया है, जिसके लिए हम उनके आभारी हैं।

—प्रकाशक



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এই লেখাটি বর্তমানে পাবলিক ডোমেইনের আওতাভুক্ত কারণ এটির উৎসস্থল ভারত এবং ভারতীয় কপিরাইট আইন, ১৯৫৭ অনুসারে এর কপিরাইট মেয়াদ উত্তীর্ণ হয়েছে। লেখকের মৃত্যুর ৬০ বছর পর (স্বনামে ও জীবদ্দশায় প্রকাশিত) বা প্রথম প্রকাশের ৬০ বছর পর (বেনামে বা ছদ্মনামে এবং মরণোত্তর প্রকাশিত) পঞ্জিকাবর্ষের সূচনা থেকে তাঁর সকল রচনার কপিরাইটের মেয়াদ উত্তীর্ণ হয়ে যায়। অর্থাৎ ২০২৪ সালে, ১ জানুয়ারি ১৯৬৪ সালের পূর্বে প্রকাশিত (বা পূর্বে মৃত লেখকের) সকল রচনা পাবলিক ডোমেইনের আওতাভুক্ত হবে।