পাতা:অনাথবন্ধু.pdf/২১৮

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सकें। अथवा उलो धन से अनाथ बिधवाओं का पालन हो तो उनका सतीत्व कों नष्ट हो और क्यों हम इस पतित अवखा में पड़े रहें। यदि । हमारे दूरदर्शी पाठक इन दोनों कर्मों को सामने रखकर विचारें तो उन्ह मालूम हो जायगा कि पिछली प्रणाली से ही हमारा वास्तविक कल्याण । हो सकता है। यदि दृष्टि खोल कर देखा याय तो जानपड़ेगा कि हमारे पूर्वज फूस को भोपड़ी में रहकर कैसे कैसे परोपकार पूर्ण कर्मी किया करतेथे। उनके फूल के घरका दर्वाजा सदा दूसरों के लिये खुला रहताथा परन्तु आज हमारी उच्च अहालिका का नक्षासी दार इार सदा आगन्तुक के लिये बन्द रहता है। आजकल यदि कोई अतिथि अथवा भिक्षुक किसी धनी के यहां जाय । तो उसको सखार अथवा भिक्षा मिलनी तो दूर रही ऊपर से धक और गालियां मिलती हैं। हमारे जिन पूर्वजों की कोर्ति हमें यह बतला रही ह कि यदि कोई अतिथिभोजन के समय आ पड़ता तो वे पहिले उस अतिथि का सत्कार कर तब यदि कुछ बचा तो आप खाते थे उन्ही पूर्वजों को हम सन्तान हैं। धिक है एसे धन की जो अपने देव तुख्य पूर्वजों के यश को कलुषित करे, धिक हे एसे संकीर्ण हृदय मनुष्थ को जो अपने कर्तव्य को न करता हो । धन को शोभा तभो है जब उसका सदव्यवहार होता हो धन केवल संदूक में बन्द कर ब्याज खाने के लिये नहीं है 'वरन उससे मानव जाति को कुछलाभ पहुंचना :चाहिये। धन का सुव्यवहार होने से कभी नहीं घटता। यह प्रतेयक मनुष्थ जानता है कि हमारे साथ कुछ नहीं जाता धन, परिवार घर इत्यादि । सासारिक जितनी बस्तु है, सब यहीं छूट जाती हैं कारण युद्ध संसार एक महा श्लशान हैं ! अविराम • काकवीत प्रति दिन प्रति दण्ड में प्रति सुदूत में नावबन्धु । [ ጻማጫጭቁ, ሻክቐrነቅቁs ! 可可可甜可可 बहाकर विष्मृति के गर्भ में फेंक देता है। क्षणभर पहिले जिस वस्तुको देखचुके हैं, वह अव नहीं । प्राण देने परभी अब वह नहीं मिल सकती। इस समय जो वक्तमान है, क्षण भरमें वह नहीं रहेगा-समस्त संसार में ढूंढ़ने । पर भी नहीं मिलेगा। कहां चखा जायगा, वहां चला जाता हैं, इस बिषय में आय जितना जानते हैं, मै भी उतना हो जानता हूं उस से अधिक और कोई भी नहीं जानता। । सब चला जाता है-कुछ भी नहीं रहतारहती है केवल कीर्ति और अकीर्ति। कीर्ति अक्षय हैं। कालिदास चले गये, शकुन्तला है ; शेक्सपियर चला गया, हमलेट है : वाशिङ्कटन चला गया, अमेरिका के स्द्धाधीनता की धूजा आज भी फहरा रही है। रूसा चला गया, साम्यका दुन्दुभि-नाद आज भी समस्त संसार में गूंज रहा है। मनुष्थ की भलाइ बुराई उसके साथ चली जाती है किन्तु कीर्ति और अकीर्ति .का विनाश नहुँ होता । बाशिङ्गटन का देशा नुराग उसके साथ चला गया। शेक्सपीयर का चरित्रदोष भी उसके साथ ही चला गया। किन्तु उनलोगों ने मनुष्यजातिका जो उपकार किया हैं, उसका सौरभ निशिदिन बढ़ रहा ह। इसीसे कवि कह गया है :- कहेंगे सबै नीर भरि भरि, पाछे प्यारे हरिचंद की कहानी रह जायगी। राजा अशोक ने रास्तों में कुएं बनवा दिये थे । रास्तों के दोनों तरफ चक्ष लगवा दिये थे जिस में जाने आने वाले धूपसे दुखी न हों। एसे सज्जनों की स्मृति के लिये सभा समिति कर वकृता दे यश मान करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उनके कर्मी ही उनकी किर्ति सहित उन्ह अमर कर | गये हैं।