পাতা:অনাথবন্ধু.pdf/৩৭৭

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प्रथम खं, पञ्चम संख्या ।। ] · । सन्देह हे ? खयम् धर्मखरूपिणौ, अानन्द प्रेमदायिनी मानव जाति के एकमात्र सुख सम्यद की आधार है। जीबके चरित्र की महिमा, जीव के जीवत्व की महिमा, तब ही प्रकट होती है, जब वे अपने वाहुप्रसारित माता की गोद में स्थान या अपनी माता का आदरणीय होते हैं, इसी लिये वे इस जगत् मे' आदरणीय होते हे, जिसने अपनो माताका सञ्चा खेह पाया है, वेही धन्थ है, उनके ऐसा भाग्यशाली पुरुष इस जगत में अति विरल दृष्टिगोचर होते हैं। यही हिन्दुनारी का आदर्श है। साधना के प्रभावसे जूननी जब प्रसव हो कर बर देने के लिये आती हैं, उस समय की महीयसी सूतों जिस मनुष्थ ने नहीं देखी है वास्तव मे उससे वढ़ कर हतभाग्य इस जगत् में कौन हो सकता है ? ऐसे मनुष्थ का जीवन वृथा और व्यर्थ है। नारी को समान की दृष्टिसे देखने ही से उनकी महिमा जानी जाती है। क्या आपको ऐतिहासिक भारतीय हिन्दुनारी का आदर्श चरित्र स्मरण नहीं है? यदि स्मरण न हो तो पुनः-सीता, दमयन्ती, सती, पद्मिनी आदि महाराणियों का चरित्र पढ़डालिये खयम् समभ लेवेगें कि वास्तव में, नारो सब्बाँत्कृष्टा और पूजनीया हैं। देखिये कविवर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने वीर शत्राणियों पर क्धा लिखा है ? धनि धनि भारतकी छत्रानी । वीरकन्यका, वीरप्रसविनी, वोरवधूवरजानौ ॥ मती शिरोमणि धर्म धुरंधर वुधवल धीरजखानी। इनके यश को तिहु लोक में अमलधूजा फहरानी॥ हम लोग हिन्दू हैं। नारो को इसी प्रकार समान करते हुए हमलोंग प्रारम्भ ही से इनकी महिमा घोषणा करते आ रहे हैं। नारी हमलोगों कै भोगलालसा को पुर्ति करनेवालो विलास' கல்) हिन्दुनारी। "ፍ' ̈ ኛ፡ ; "ዴ ' ". . . مة ، : " و "ب" . . . ኣው . . . . . • • ̈ `• *፵., • •• .' ‹፡ ፳ .“. सामग्री नही हैं बल्कि हमलोगों की आराधदेवी हैं। गणपति देव ने अपनी माता से अपने विवाह * के समय कहा था 'यह क्या? आप सुभे विवाह : करने के लिये कहती हैं, में जिस नारी की और दष्टि डालता हूं उसी नारी में आपको पाता हूँ। आप जगत् के हरएक नारो में वर्तमान है आपकी महिमा हरएक नारी में पाई जाती है। जिस नारी बर्को आय मुझे पह्रोरुप मे ग्रहण करने `0܃ ों के लिये कहती है, उसी नारी मे आपको वर्तमान देखता हूँ अतएब है जननि ! मैं किस धर्मानुसार आपकी आज्ञापालन करुं ।” . माढभक्त जो होगा वह्रौं ऐसौ दृष्टि प्रयोग करेगा। जगत् के हरएक नारी को मा सा शान कर सब की पूजा करेगा। इसी प्रकार हिन्दू यदि हिन्दुनारो को समझ सके तो उसको महिमा भी अनायास में समझ ने में समर्थ होगा हमारे । साहित्य में बहुतेरे नारोजीवन का चरित्र बर्तमान है। यदि हमलोंग उन्ही सब चरित्रों को पढ़ सारततू ग्रहण कर सकें-तो वास्तव में हमलोगों से उन्नतिशील जाति इस जगत् में कोई नही हो सकती है ! सत्यही से हमलोगों की उतपत्ति हुइ हैं और सत्य ही में हमलोगों की स्थिति है, यदि यह जानकर हमलोग सत्यमय नवदुर्वादल, श्यामकान्ति पीतबसन> पद्मपलाशलोचन, प्रपुलमुख, कोटि कोटि चन्द्रमा सूये जिनके पादपझमे सुप्रकाशित होते हैं ऐसे श्रीभगवान के वीचरणतल पर खड़े होकर पवित्र कुसुम क एसा पवित्र हो जगत्याता जगदीशखर के आराधना करने योग्य हृदय गठन कर सके। तब ही हमलोंग वास्तव में, अपना जीवन सार्थक करनेमे समर्थ होगें। । नारी को समाज के सब्वॉचशिखर में वैठाना,