পাতা:কাদম্বরী (হরিদাস সিদ্ধান্তবাগীশ).pdf/১৮৯

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ίες कादब्बरो पूर्वभागे सञ्चरण पवित्रम्, [१] उपहिताषाढम, प्राखच्द्यमाणमूलम्, एकान्तख्यितचारुतारकस्रगम् [२] भ्रमररूीकाश्वममिव गगनतलम । ] च ऋत् दीधितिरध्यतिष्ठत् [थ]। चन्द्राभरणश्वतस्तारका कपाल-णकलालढुतादम्बरतलात् त्रयम्वकोोत्तमाङ्गा दिव गङ्गा सागरम् [४] आपूरयन्ती इ स धवला धरणखामपतञ्जीत्स्त्रा [द] । भध्युषितम् भावितम् पचे नचवात्मकमरौच्यादिसप्तषि गणन भध्युषितम् । भरुन्धत्या परमपतिव्रताया वशिष्ठ पत्रा भरुन्धतौनामकनचवविशेषस्य च सञ्चरणेन विचरणेन पवित्रम् । उपहिता मुनिभि ख्यापिता भाषाढ़ा दखा यविान् तम् भाषाढी व्रतिना दण्ड मासे मलयपव ते । इति विश्व पचे उपहिते सन्निहिते थाषाढ पूर्वाषाढी तराषाढ नचत्रे यअिन्। तत्। आखच्यमाणनि दृश्धमानानि मूलानि मुनौना खाद्मभूतमृलानि यत्र तम् अन्यत्र तु चालच्यमाण मूल मृलाख्यानचत्र यअिन्। तत्। तथा चारु भनीइरै तारकै कनौनिकाइय येष ते तथा एकान्त एकपाख्ने खिता चारुतारका मगा हरिणा य खान्तम् पचे एकान्त थित चारुतारक सुन्दरनक्षत्र स्वगैौ मृगशिरा यदिान् तत । नचत्र नेवमध्य च तारक तारकापि च । इति वोपखित । भमरलोके खक य थाश्रमी वशिष्टादैतपीवन तमिक् । अन्तदीथितिशन्द्र । प्रापीपमबन्ध्रुजनमत्ध्रुवार्तामुपैयापरी बन्ध्रुजन इवेति भाव । चतएवात्र भाषमेण सह गगनस्य सादृश्य वाच्य तादृशषन्धुजनेन सह चन्द्रख साढग्झन्तु गम्यनित्य कदैणविवनि न्युपमात्रडार देिषेण सड़ीर्यते । (द) चन्द्रेति । सागरम् आपूरयन्तौ खीदयैन खजलैन च समुद्र परिपूर्ण कुवतौ चन्द्रीदथै समुद्रइड प्रसिङ्गत्वात गङ्गापी तु आपूरयन्तौति भविष्यतसामौप्य वत्त माना आपूरयिष्यन्तौत्यथ । इ सवडवला इ सैन धवला च ज्योतखा चम्ट्र एवाभरण तहिमताँति तद्मात त्गरका नचवाणि कपाखशकखानौव नरग्निरीऽस्थिखण्डानौव त रखकृतात भग्बरतखादाकाशात त्राब्बकस्य शिवस्य उक्तमाङ्गान्झस्तकात गङ्गा इव धरण्य़ामपतत । श्रव पूर्थीपमालड़ार । যাহাতে বাস করেন অব সাধী বশিষ্ঠপত্নী অবন্ধতীর বিচরণে যে আশ্রম পবিত্র কইয়া থাকে এবং যে আশ্রমে পলাশেব দণ্ড সকল স্থাপিত আছে ভোজনের নিমিত্ত ফল মূল দৃষ্টিগোচর হয় এব একপ্রান্তে মনোহর নয়নতারাসমন্বিত হরিণগণ বিচরণ করে , সেইরূপ আশ্রমে যেমন কোন প্রণয়ী ব্যক্তি প্রিয়বয়স্তের মৃত্যুসংবাদ পাইয়া সকল বিষয়ে বৈরাগ্য উৎপন্ন হওয়ায় ধৌত ক্ষৌমবস্ত্রেব ন্যা শ্বেতবর্ণ বন্ধল ধারণপূর্বক ধ্যানস্থ হইয় অবস্থান করে , সেইরূপ চন্দ্র স্থধ্য অস্তমিত হইয়াছেন এই বৃত্তান্ত জানিতে পারিয়া বিশেষ উদয়রাগে রঞ্জিত হইয় তাবারূপ স্ত্রীগরে সহিত আকাশে অবস্থান করিতে লাগিলেন , তখন আকাশ পরিষ্কৃত ক্ষৌমবস্ত্র ও বন্ধলের ন্যায় ধবলবৰ্ণ হইল , তমালবৃক্ষশ্রেণীর স্তায় অল্প অন্ধকার একপ্রান্তে সরিয়া গেল সপ্তর্ষিমণ্ডল (7ক্ষত্র) উঠিল অরুন্ধতীনক্ষত্রেব উদয়ে আকাশ পবিত্র হইল চন্ত্রের নিকটে পূৰ্ব্বাষাঢ় ও উত্তবাষাঢ়নক্ষত্র উঠিল , মূলানক্ষত্র দেখা ষষ্টতে লাগিল এবং মনোহর মৃগশিরা নক্ষত্রও একপ্রাস্তে উদয় পাইল। (দ) পূৰ্ব্বকালে সমুদ্রপূবশকারিণী এব হ সগণের বিচরণে ধবলবৰ্ণ গঙ্গা যেমন চন্দ্রকলগঙ্কত ও নব কপাল শোভিত মহাদেবের মস্তক হইতে ভূতলে পতিত হইয়াছিলেন, তেমন সমুদ্রের পূর্ণতাকারিণী (१) पूत । (९) तारकाषग । (३) गगन । (४) सागरान्।