পাতা:কাদম্বরী (হরিদাস সিদ্ধান্তবাগীশ).pdf/২৭

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{ कादम्बरी । पूव कविव शवण जम । बभूव वात्स्यायनव शसम्भवी द्दिजी जगद्गीतगुणीऽद्यगी सताम । अनेकगुप्ताचि तपादपड़ज कुवरनामाशा इव स्वयम्भ ब ॥१०॥ उवास यस्थ शुतिशान्तकखप्रषे मदा पुरीडाशपवित्रिताधरे । सरस्वती सीमकषायितोदरे समस्तशाख्नस्मृतिबन्धुरे मुखे ॥११॥ बभूवति । वत्सस्यापत्यमिति वात्स्य स अयन गीव्रप्रवत कतया घाश्रयी यस्य स तादृशी यी व शस्त्रत्र साभव उत्पन्न । जगता जगज्जनेन गैौता कौति ता गुणा विद्याविनयाटयी यस्य स ! सता साध नाम् अयणैौ थग्रसर श्रेष्ठ । अनेक बहुभि गुप्तध झ_थञ्चि ते पृजिते पादपङ्कजे चरणकमलइय यस्य स । तथा खयम्भुबी ল্লাল্লখ্য স্ব স্থা सन्ावतारं दुव कुवेरनामा हिजी ब्रध्नणी वभूवT चन्न खयग्भ्,बीऽ श हवति बाधा भावाभिमानिनौ द्रव्य'त्प चालङ्कार । श्मा देवश्च विप्रस्य निन्त चत्रियस्य च । ग्रनदासात्मकं नाम प्रश’स्त वश्यशूद्रधी ॥ इति वचनात् गृप्तपदेन व इङ्ग्रह्रिणम् ॥ १ ॥ उवासेति । झुतिभिर्व द–वदृपाटुरियथ ग्रात-विनष्ट कलाष पाप यस्य तझिन् नित्यवदपाठेन वाचनिक प्रापष्टीन इत्यथ । पुराडाशैन अप्रिहीवादौ हुतशैषेण हविषा पवित्रितौ मक्षणकाले सयौगैन पवित्रैौक्कती अधरी चौोछौ यस्य तझिन्। सीमेन सीमरसैन यज्ञ सीमरसपानेन कषायित सुरभौक्कतम् उदरम् अभ्यन्तर यस्य तझिन्। तथा समस्ता या शास्त्रभृतय ब्याखादिप्रणैौतब्रह्मसूवादौनि शास्त्राणि मन्वादिप्रणैौतधर्ध्रसहिताश्च घृतय ताभिरतत् पाठ रित्यथ बन्ध्रुर रम्य तअिन्। यख कुवेरस्य मुखे वदने सरस्वतौ वाग दैवी सदा उवास वसति अ । एतैश्लास्य नित्यबॆट्पाठित्व नियत्याग्विकल्व संक्ष शास्त्रंशत्वञ्च प्रत्यायेितम् । पुरीडायी इविभ दै इतशषे च कीत्ति त दृति विश्व । बश्वर मुकुनै विषु खाद्रम्यनखयी शृति मर्द्दिनौ । पुरोडाशेति मन्त्र श्वतबइकथश सपुरीडाशावयजिभ्यी विन इति निपात । पवित्रौ क्वताविति पवित्रितौ कषाय क्तमिति कधाथितम् उभयत्रापि करीत्यथ नन्तात् कश्मणि त । नृतैौनां यास्त्रान्तगैतत्व ऽपि तासां धु; प्रतिपादकतया प्राधान्यसूचनाथ धृथकद्युतिपदमुपात गीद्वषन्यायात् ॥ ११॥ শ্লেষাকাবে কিঞ্চিৎ দুৰ্ব্বেধ্য সুন্দর কথাকাব্য উজ্জ্বল প্রদীপের তুল্য নূতন উপাদেয় বস্তু চম্পক কুসুমকলিকাদ্বীব গ্রথিত, জাত কুসুমসম্পন্ন এব পরস্পর ঘনসন্নিবিষ্ট মহামালাব ন্যায় কোন ব্যক্তিকে আকর্ষণ না করে ? ॥৯ BBB BB BBBBB BB BBBBBBB BBBBB BB BBB BBBBB BBBBBBBS তিনি সাধুগণের অগ্রগণ্য ছিলেন, জগতের লোক তাহার গুণগান করিত এবং অনেক বৈশু র্তাহার রণকমলের সেবা করিত ॥১ ॥ বাগ দেবী সৰ্ব্বদা যাহার মুখে বাস করিতেন এব বেদপাঠে র্যা ব মুখের বাচনিক পাপ বিনষ্ট ইয়াছিল যজ্ঞের অবশিষ্ট দ্রব্যভক্ষণে ওষ্ঠযুগল পবিত্র করিয়াছিল যজ্ঞকালে সোমরস পান করার মুখমধ্য সৌরভসম্পন্ন হইত, জার র্যাহাব মুখখনি সকল শাস্ত্র উচ্চারণ করবার কালে সুন্দর দেখা ত ॥১১