পাতা:হিতোপদেশঃ (লক্ষ্মীনারায়ণ ন্যায়ালঙ্কার).pdf/৩৩১

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ई५४ ॥ चुिंतीपंंः ॥ चतेविनथत्यखान्कुखं। ततो विजयेनान डइभभके ऽथॆट्त् मा विषीदत मयाश्च धतीकारः करीयंः ततॆनै। श्रैतिश्य चखितः चॆच्छ्त च तेनाथॆचितं कधं चञ्च यूचचमीपे खिलावनाथं। यतः। शृशम्नपि गजेोहन्ति जिन्त्रब्रपि भुजङ्गमा । पलायन्त्रपि भूपाल प्रहसब्रपि दुर्ज्ञेनः ॥ षताइं पर्वतशिखरमारुचे यूथनाथं संवारं बामि तथा नुष्ठिते यूथनाव उवा च करूवं कुतमॆसमा यातः च नूतं शशकोदुं भगवता चन्द्रेड भवदन्तिकं भेषि तम्यूबपतिराहकार्थमुच्यतं विजयेदूते उद्यतेष्वपि शनेिषु दूलेति नान्यथा। सदैवावभ्यभावेन यथार्थेस्य हि वाचकः ॥ तदहं तदाशया ब्रबीमि शृषु यदेते चन्द्र सरे रचकाः शशकारुबया नि:शारितास्वदनुचितं कृतं । 線 অতএব আমাদের জল মষ্ট হইৰেক । ভদনস্তর বিজয় নামে ৰূদ্ধ শশক বলিল বিষম হই ও না ইহাতে আমি প্রভিকার করিৰ ভাহার পর প্রভিজ্ঞ করিয়া চলিল গমন করত সে আলোচনা করিল হস্তিমুখ সন্নিধানে থাকিয়! কি প্রকারে বলিব যেহেতুক হস্তী স্পর্শ করত নষ্ট করে সর্গ প্রাণকৱজ্ঞ নষ্ট করে রাজা ; পলায়ন করত নষ্ট করে দুজন হাস্য করস্ক নষ্ট করে অস্থএৰ পৰ্ব্বত্ত শিখরে আরোহণ কৱি য়া সুখপত্তিকে কাছ তাছা করিলে যুথপত্তি কহিল কে তুমি কোথা হইতে মাইল । সে, বলিল আমি,শশক ভগবান