পাতা:হিতোপদেশঃ (লক্ষ্মীনারায়ণ ন্যায়ালঙ্কার).pdf/৪৩৯

এই পাতাটির মুদ্রণ সংশোধন করা প্রয়োজন।

४२२ ॥ च्हृितापट् श: ॥ यतः ॥ न रुर्व्रीणाचश्रियः कश्चित् श्रिये वापि न विद्यते । तावतृष्णमिवारं प्रार्थेयन्ति नवं नवं । चथैकदा स्ा रत्नप्रभा तस्म्न सेवकस्य मुखं चुम्बनं ददती समुद्रदर्न नाबलेकिता ततः सा बन्धकी सत्वरं भर्तुः समीपंगत्वाह नाथ एतस्य सेवकस्य महती निष्टत्तिः यतेोऽयं चैरिकी कृत्वा कर्पूरं खादतीति मयाखमुखमाघ्रायज्ञातं तथा चातं ॥ चाहारेोद्विगुणः स्त्रीणामित्यादि । तच्कुत्वा सेव केन प्रकुप्येातं नाथ यस्य खामिनाद्यहे एतादृशीभाय्र्घा तच स्रवकन कथं स्थातव्य यच प्रतिचतणं गृहिणी सेवक स्य मुखं जिघ्रति ततेोसावुत्थाय चलितः साधुना यदनात्। प्रवाध्य धृतः अर्ताहं ब्रर्वीमि उत्पन्त्रामापदमित्धाटि । যেহেতুক স্ত্রালোকেরদের কেহ অপ্রিয় নাই প্রিয় ও নাই গো সকল যেমন কাননেতে সৰ্ব্বদা নুতন ঘসি আকাঙ্ক করে এইরূপ স্ত্রীলোকেরা অনুক্ষণ নবীন২ পুরুষকে অভিলাষ করে অনন্তর এক দিবস সেই রত্নপ্রভা ঐ দাসকে মুখচুম্বন দিতে ছিল তাহ সমুদ্রদত্ত দেখিল । তাছার পর সে জলট ঝটি তি স্বামির সন্নিধানে গিয়া কহিল হে নাথ এই সেবকের অতিশয় নিৰ্ব্বাহ যেহেতুক চৌর্য ক্রিয় করিয়া কপূর খায় ইছা আমি ইহার মুখ আৰুণি কfয়। জানিলাম। তাছা কৰি ত মাছে স্ত্রীলোকেরদের অহার দ্বিগু৭ তাহারদের বুদ্ধি চন্তু,