পাতা:হিতোপদেশঃ (লক্ষ্মীনারায়ণ ন্যায়ালঙ্কার).pdf/৪৫৩

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४२६ ॥ दृिते॥पट् शः ॥ चरित मल्नुवदेशी पद्मगब्र्भनामधेयं सरः तचर्काष्टद्वेावकः स्ामर्थहीनउद्दिन्नमिवात्मानं द्शेयित्वा स्थितः स्च कॆन चित् कुखीरेण दृष्ट पृथ्ञ्च किमिति भवानचाहारत्या गे न तिष्ठति वकेनेक् मत्स्यामंमजीवनहेतवः तं कैवर्त्तं रागत्य व्यापादितव्याइति वातानगरेापान्ते मया श्रुत्वा थर्तावत्तनाभावादेवास्त्रन्झरणसुपच्चितमिति ज्ञाला चाच्रिप्यनाट्रः कृतंः ततॆामत्स्यैरालॆचितं द्रच् स्मये तावदुपकारकण्वायं लच्यते तदवमेव यथा कर्त्तव्य मृच्छ्तं । तथा चोक्तः ॥ ཟ་ཤ་ཧྥ་ཧྲི་འུ་ཨr ঘমিল দিল্প णापकारिणा । उपकारापकारें हि लुच्यं स्तच्त्रण मॆतयेीः ॥ मत्स्ाजचुः। भेाबक् केोऽच रचऐपिायः वके। बूते चलि रचऐापायः जलाशयान्तराश्रयणं तचाहसे कैकशेशयुषुम्नयामि ॥ ० ० ० মালব দেশেভে পদ্মগৰ্ভ নামে সরোবর আছে তাহীতে শক্তিরহিত এক বৃদ্ধবক আপনাকে উদ্বিগের ন্যায় দেখাইয়। থাকে । তাছাকে কোন কর্কট দেখিল আর জিজ্ঞাসিল স্তমি কেন এখানে মাহার ত্যাগ করি: রহিয়াছ বক কহিল মা মীর প্রাণ ধারণের কারণ মংসের ভাহা দি গেকে কৈব র্ভের। আসিয়া নষ্ট করিবেক এই বৃত্তান্ত আমি নগর সমপে শুনিয়াছি অতএব বস্তুনের অভাব প্রযুক্তই আমার মরণ উপ স্থিত ইহা জানিয়া মাহীরেতে অনাদর করিয়াছি । তদনন্তর মৎসের মালোচনা বরিল এই কালেতে এই ব্যক্তি উপ