পাতা:হিতোপদেশঃ (লক্ষ্মীনারায়ণ ন্যায়ালঙ্কার).pdf/৪৯৭

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8びo ॥ हि तापटेश: ॥ यावतः कुरुते जन्तुः स्म्बन्धाम् मनस्रः fश्रयान् । राव न्तोपि स्निंखचन्त हृद्ये शेकिशङ्कुवः ॥ नायमत्वन्तस् भ्वासेालभ्यते येन केनचित्यपि खन शरीरेण किमुता न्येन केनचित् ॥ चपि च ॥ संयेन गोहि वियेोगख संसूच यति सन्भवं । चनतिक्रमणीयस्य जन्ममृत्यॆारिवागर्म ॥ चापातरमणीयानंा सयेोगानं प्रियैः सह। यपथ्याना मिवान्वप्नं परि ण्,मेतिद्ारुणः ॥ चपरच ॥ ब्रञ्जन्तिन निवर्त्तन्तॆत्रॆ तस् िसरितं यथा ।। चायुरादाय मर्त्येन तथा रात्र्यहनी सदा ॥ सुखाखाटपरायस्तु संसरे सह्म मागमः । सवियेोगावसानत्वात् दुःखाना धुरि युञ्धते॥ चतण्वं हि नेच्छन्ति साधवः स्रह्ममागमं । यद्दियॆागांसि चूनख सनसेानास्ति भेषज् ॥ ५ १ ५ * লোক পূএস্থাদি যত সম্বন্ধকে মনের প্রিয় করে সেই সকল সম্বন্ধকে পুপ্রাদির নাশ হইলে শোকরূপ শঙ্কু করির পুতি য়া রাখে। এভাদৃশ অত্যন্ত প্রণয় যে কোন লোকের সহিত কৰ্ত্তব্য নয় নিজ দেহের সহিত ও কৰ্ত্তব্য নহে অন্যের সঙ্গে কি এবং অপরিহার্য জন্ম মৃত্যুর সমাগম যেমন মৰশ্য হয় এই রূপ পৃএ মিত্ৰাদির মিলন তাছারদিগের বিচ্ছেদ অব শ্য করে। প্রয়ের সহিত মাপাততঃ সুখাবহ যে মেল তাহার শেষ কঠিন হয় যেমন জপথ্য অন্নের পরিনাম দারুণ অপর নদী সকলের শ্রোত যে প্রকার বহিয়া যায় পুনশ্চ ফিরিয়া