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सिद्धान्त के पुजारी कहने लगे थे कि कवि और कलाकार सर्व प्रथम स्वप्नचारी है। रवीन्द्रनाथ ने इस मत को कभी भी स्वीकार नहीं किया कि कला जीवन से विच्छिन्न है। उन्होंने सौंदर्य को ढूँढ़ा तो, लेकिन जीवन की अभिव्यक्ति के रूप में ही। साथ ही उनका यह भी विश्वास था कि जीवन में माधुर्य तब तक नहीं आता जब तक कि वह सौन्दर्य से स्निग्ध न हो जाय। रवीन्द्रनाथ की दृष्टि में कवि-धर्म ही मानव-धर्म है।

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 रवीन्द्रनाथ संसार के श्रेष्ठतम गीति-कवियों में गिने जाते हैं। संवेदनाओं की सचाई और भाव-चित्रों की सजीवता उनके पदों के संगीत से मिल कर एक ऐसे काव्य की सृष्टि करती है कि शब्दों के भूल जाने पर भी पद-संगीत पाठक के मन को विभोर किये रहता है। संवेदना, भाव-चित्र और संगीत का इस प्रकार से घुल-मिल जाना उनके प्रारंभिक जीवन से ही दीख पड़ने लगता है। 'निर्झरेर स्वप्नभंग' की रचना उस समय हुई जब वे बीस वर्ष के भी नहीं थे; लेकिन वह आज भी बंगला, और यदि सच पूछा जाय तो किसी भी भाषा की श्रेष्ठतम गीतियों में है। यह कविता केवल अपने संगीत और तीव्रता के कारण ही विशिष्ट नहीं है, बल्कि अपने भाव-चित्रों की सबलता के कारण भी है। और शायद इससे भी महत्त्व की बात यह है कि इसमें प्रकृति और मनुष्य को एकता के ऐसे योग-सूत्र में बाँधा गया है जो कभी टूटने वाला नहीं है। प्रकृति और मनुष्य का यह सायुज्य रवीन्द्रनाथ के काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता रहा है और यह बात उनमें उनके समस्त जीवन बनी रही।

 धरती को इतने प्राण-पण से प्यार करने वाला कोई दूसरा कवि शायद कभी नहीं हुआ। रात या दिन अथवा ऋतु-चक्र की शायद ही कोई भावभंगी या मुहूर्त ऐसा होगा, जिसका गान रवीन्द्रनाथ ने अपनी कविता में नहीं गाया हो। उनके काव्य के जादू ने बंगाल के दृश्य रूपों की छवि और उसकी ध्वनियों के दृश्यों को बारंबार अपने भीतर उतार-