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पृथ्वी के भरे-पूरे जीवन और सृष्टि की आदिम शक्ति के उफनते ज्वार के साथ मनुष्य के अंतरंग संबंध का गीत गाया है। अपनी एक सुप्रसिद्ध गीति 'स्वर्ग हइते बिदाय' (स्वर्ग से विदाई) में उन्होंने उच्छ्वासरहित शान्त स्वर्ग-सुख के साथ सांसारिक जीवन के अजस्र सुख-दुःख के ज्वार-भाटों की तुलना की है। रवीन्द्रनाथ ने हमें किसी प्रकार के भ्रम में नहीं रहने दिया कि वे किस जीवन को अधिक पसन्द करते हैं।

 रवीन्द्रनाथ मुख्यतः गीतिकार ही हैं, लेकिन उनके प्रकृति-प्रेम और जीवन के वैविध्य के साथ उनकी अन्तरंगता ने उनकी बहुतसी कविताओं में एक सुसमृद्ध नाट्य-गुण ला दिया है। रवीन्द्रनाथ के गंभीर मानव-धर्म और न्याय के लिए उनकी आकुलता को देखते हुए इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि वह सामाजिक एवं राजनीतिक विषयों की ओर भी आकृष्ट हुए। किसी प्रकार का कोई विशेष अनुभव भले ही सामयिक क्यों न रहा हो, लेकिन जिसको भी उन्होंने छू दिया है वह एक ऊँचे दरजे पर पहुँच गया है और सार्वभौम हो गया है। अपने ही लोगों के पूर्वग्रहों और कुसंस्कारों के खिलाफ़ उन्होंने कुछेक कटु व्यंग्यों की रचना भी की है। लेकिन उन रचनाओं में शायद ही कोई ऐसी हों जिनमें उनके भीतर की मानवता उनके रोष और क्रोध के स्तर से ऊपर न उठ गई हो। यहाँ तक कि उनकी देशभक्ति-पूर्ण कविताएँ भी समग्र मानव जाति की भावना से अनुप्रेरित हैं। रवीन्द्रनाथ के लिए देश-प्रेम एक सहज गुण था जिसमें अपने देश और देशवासियों के लिए प्रेम तो था, लेकिन दूसरे देशवालों के प्रति घृणा या हिंसा-भाव नहीं था, और इस प्रकार से वह देश-प्रेम नकारात्मक कभी नहीं था। इसका एक अत्यन्त सुन्दर उदाहरण उनकी कविता 'गुरु गोविन्द' में मिलता है। इसमें अपने देश तथा देशवासियों के लिए उनका गंभीर प्रेम समग्र मानव जाति के प्रति प्रेम की गहराई में उतर आता है। रवीन्द्रनाथ ने इस बात को कभी भी स्वीकार नहीं किया कि जिसमें मानवीय तत्त्व है वह भी कभी उनके लिए विदेशी हो सकता है। अपनी सुप्रसिद्ध कविता