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'प्रवासी' में उन्होंने कहा है कि सभी जगह मेरा घर है और संसार के सभी हिस्से में मेरा देश है। समग्र मानव-जाति के साथ एकात्मबोध का यह भाव बड़े सुन्दर ढंग से हमारे राष्ट्रीय गीत में प्रकट हुआ है। इसमें रवीन्द्रनाथ ने भारत-भाग्य-विधाता के रूप में समस्त संसार के जनगणमन-अधिनायक का आह्वान किया है।

 मनुष्य के प्रति रवीन्द्रनाथ का यह प्रेम अनजाने तथा अपरिहार्य रूप से भगवान् के प्रति प्रेम का रूप ले लेता है। हम यह देख चुके हैं कि उनकी कल्पना में जीवन की अभिरुचि का जो विकसन हुआ है, उसमें प्रकृति और मानव एकाकार हो गए हैं। उन्होंने यह कभी भी नहीं सोचा कि भगवान् मनुष्य के जीवन से दूर और अलग की वस्तु हैं। उनके लिए प्रेम ही भगवान् था। सन्तान के प्रति माता का वात्सल्य अथवा प्रेमिका के प्रति प्रेमी का प्रेम उस महत् प्रेम के उदाहरण-मात्र हैं और यह प्रेम ही परमात्मा है। और यह प्रेम केवल रहस्यवादी भाव-विह्वलता में ही नहीं प्रकट होता बल्कि साधारण मनुष्य की नित्य-प्रति की जीवन-यात्रा में भी प्रकट होता है। रवीन्द्रनाथ ने बार-बार कहा है कि जीवन के सहज साधारण संबंधों में और नित्यप्रति की उस कार्यावलि में, जिन पर कि संसार टिका हुआ है, भगवान् को प्रत्यक्ष करना चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि रवीन्द्रनाथ वैष्णव काव्य और सूफ़ी-रहस्यवाद से अत्यधिक प्रभावित थे। उनकी कविता और उनके गीत ऐसे भाव-चित्रों से भरे हैं तथा उनका वक्तव्य विषय कुछ इस प्रकार का है कि हमें रहस्यवादियों के भावोल्लास की याद आ जाती है। लेकिन साथ-साथ उनमें दिन-प्रतिदिन की जीवनयात्रा की वास्तविकताओं के प्रति भी एक तीव्र जागरूकता है। उनके शब्दों और वाक्यांशों में प्रकाशन-भंगी की एक ऐसी यथार्थता है जो व्यक्तिगत अनुभव के बिना संभव नहीं। संवेदना के चित्रण की बारीकियाँ प्रकृति के भिन्न-भिन्न भाव-रूपों से इस प्रकार घुल-मिल गई हैं कि संसार के काव्य-साहित्य में वैसा चित्रण कम ही देखने को मिलता है।