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नये साँचे में ढाला है, लेकिन फिर भी यह समझने में भूल नहीं हो सकती कि सुसमृद्ध भारतीय पुराण-साहित्य से उसका गहरा सम्बन्ध है। मनुष्य और परमात्मा के प्रति निवेदित अपनी कविताओं में उन्होंने सभी प्रकार के अलंकरण का परित्याग कर दिया है। मनुष्य की साधारण-से-साधारण परिस्थिति का भी उपयोग उन्होंने सत्य को अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए किया है। उनकी भाषा भी सर्व-साधारण की भाषा-जैसी सहज, सरल और स्पष्ट हो गई है। बाद के इन बहुत-से गीति-काव्यों और गीतों में हम अनुभूति के सामीप्य का साक्षात्कार अनुभव करते हैं। शब्द बिलकुल पारदर्शक और स्वच्छ हो गए हैं। विशुद्ध संगीत की ध्वनियों की नाईं उनमें ऐसी सबलता और स्पष्टता आ गई है, जिससे हम बहुधा अवाक्‌ रह जाते हैं।

 हम यह भी नहीं भूल सकते कि रवीन्द्रनाथ अपने समस्त जीवन में सत्य के निर्भीक और सच्चे खोजी रहे। उनकी बुद्धि के तेज ने प्रवंचना और पाखण्ड के बाह्य दिखावटी स्वरूप को, जिसका निर्माण हम अपने दैन्य को छिपाने के लिए करते हैं, छिन्न-भिन्न कर दिया है। उनकी रचनाओं की ऊर्जस्विता और शौर्य वाले गुण से वे लोग बहुत दूर तक अपरिचित ही हैं, जिन्होंने उन्हें मूल में नहीं पढ़ा है। इसका एक कारण यह है कि अनुवाद के लिए चुनी हुई रचनाएँ ही ली गई हैं; और उनमें कुछ ऐसी कविताएँ छाँट दी गई हैं जिनसे रवीन्द्रनाथ की बुद्धि के पैनेपन और प्रसार-मात्र का पता चल पाता। दूसरा कारण यह है कि बहुत से अनुवाद छाया-मात्र हैं, और उनमें मूल की खुरदरी और दुर्दम शक्तिमत्ता प्रायः खो-सी गई है। मनुष्य तथा उसकी नियति के प्रति रवीन्द्रनाथ की दिलचस्पी उनके जीवन के प्रारंभिक काल से ही दीख पड़ने लगती है। 'सन्ध्या संगीत' में भी, जो कि उनके प्रथम-प्रथम के काव्य-संग्रहों में है, हम उन्हें मानव के अस्तित्व की समस्या को ले कर उलझते हुए पाते हैं। मनुष्य का स्वार्थ जब प्रेम का बाना पहन लेता है तो उससे एक असुन्दरता-सी