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प्रतिभा का जागरण माना था। इसमें गीति-काव्य का जो सुर है उसे रवीन्द्रनाथ के लंबे कवि-जीवन में बार-बार आमंत्रित किया गया है। कभी-कभी यह सुर रहस्यात्मक उत्कण्ठा और तीव्र इच्छा से रंग गया है, जैसा कि हम 'सोनार तरी' (संख्या ८) अथवा 'निरुद्देश यात्रा' (सं॰ १५) में देखते हैं। और कभी-कभी तो यह सुर गंभीर मानवीय वासना और अभिप्राय से ओत-प्रोत हो उठा है; जैसे 'येते नाहि दिब' (सं॰ ११), 'वसुन्धरा' (सं॰ १४) अथवा' भारततीर्थ' (सं॰ ६०) में। कभी-कभी संगीत ही प्रधान हो उठा है और उस समय ऐन्द्रियिकता और बौद्धिकता का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है जैसे 'उर्वशी' (सं॰ १९), 'छवि' (सं॰ ६५) अथवा 'चञ्चला' (सं॰ ६७) में। इस समन्वय का एक अत्यन्त उत्कृष्ट नमूना 'प्रहर शेषेर आलोय राजा' (सं॰ ८७) नामक टुकड़े में मिलता है।

 रवीन्द्रनाथ की दृष्टि में मनुष्य का सबसे बड़ा कृतित्व इस बात में है कि वह अपनी निजी व्यथा और संसार की विकराल वेदना पर विजय प्राप्त करें। स्वार्थपरता के कारण उत्पन्न होने वाले दुःखों और वैयक्तिक कलहों पर मनुष्य जय-लाभ करता है। वह उस गंभीर वेदना से भी ऊपर उठता है जो जीवन की क्षणभंगुरता का अनिवार्य परिणाम है। 'बिदाय-अभिशाप' (सं॰ १३) में कच जब देवयानी के शाप के बदले उसे वरदान देता है, उसकी मंगलकामना करता है तो वह सचमुच में मनुष्य हो उठता है। 'ब्राह्मण' (सं॰ १७) में गुरु ने पाया है कि मनुष्य का महत्त्व वंश-गौरख में नहीं, बल्कि इस बात में है कि बिना किसी दुराव, बिना किसी अन्तर की दुविधा के वह सत्य को स्वीकार करता है। 'येते नाहि दिब' (सं॰ ११) में कवि ने इस बात को समझा है कि कभी-कभी एक छोटा बच्चा भी मानव-प्रकृति के सहज सत्य को प्रकट कर सकता है, जब कि अधिक समझदारी का भान करने वाले स्त्री-पुरुष इसमें असफल हो सकते हैं। 'गान्धारीर आवेदन' (सं॰ ३१) तथा 'कर्ण-