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कुन्तीसंवाद' (सं॰ ३०) में स्नेह, आकांक्षा अथवा भय के ऊपर मनुष्य के गौरव की विजय की बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। मानवीय संबंधों के सौन्दर्य तथा करुण भाव को हम उनकी शिशुसंबंधी कवितामाला में पाते हैं जो 'जन्मकथा' (सं॰ ४६) से प्रारंभ होती है। .

 रवीन्द्रनाथ ने प्रायः ही परंपराभुक्त प्रसंगों और विषयों को लिया है। प्राचीन भारतीय साहित्य उनका उपजीव्य रहा है। वैसे तो उन्होंने जिस चीज का भी स्पर्श किया है, उसमें रूपान्तर ला दिया है। कालिदास के प्रति रवीन्द्रनाथ की अत्यधिक श्रद्धा थी और उनसे वे विमुग्ध होते रहे हैं, लेकिन जब उन्होंने उनसे भी कोई प्रसंग या विषय ग्रहण किया है तो उसको इस ढंग से मोड़ा है कि उनकी अपनी रचना प्रधान रूप से आधुनिक हो गई है। रवीन्द्रनाथ के लिए 'मेघदूत' (सं॰ ६) किसी पौराणिक यक्ष का अपनी प्रिया को भेजा हुआ संदेश नहीं है, बल्कि प्रत्येक युग और स्थान के सभी प्रेमियों की तीव्र उत्कण्ठा की अभिव्यंजना है। 'अहल्यार प्रति' (सं॰ ७), 'भ्रष्ट लग्न' (सं॰ २५) तथा 'स्वप्न' (सं॰ २६) में एक लुप्त हो चुके अतीत के वातावरण को उन्होंने फिर से लौटाया है, लेकिन यह स्पष्ट कर दिया है कि अतीत फिर से हम लोगों के आज के आवेगों और मनोदशाओं में ही बस रहा है। अतीत और वर्तमान तथा पुराण और अनुभव के संबंध को जितने कौशल से 'मदनभस्मेरपर (सं॰ २७) जैसी कविताओं में प्रतिष्ठित किया गया है, वह शायद ही कहीं देखने को मिले। अतीत की परंपराओं को फिर से ला कर उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करने की प्रवृत्ति उनकी अंतिम कविताओं में देखने को नहीं मिलती। 'तपोभङ्ग' (सं॰ ७७) में एक प्राचीन पौराणिक कथा की एक अत्यन्त ही मार्मिक व्याख्या की गई है और उसे सुन्दर रूप दिया गया है। इस कविता में संन्यास के ऊपर नूतन जीवन के उफान की अन्तिम विजय की घोषणा की गई है।

 रवीन्द्रनाथ ने केवल विषय और प्रसंग को ले कर ही प्रयोग नहीं किये बल्कि काव्य के रूप-विधान को ले कर भी किये हैं। अपने पूर्व-