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वर्तियों के प्रभाव से वे कभी आतंकित नहीं हुए। बंगला के परंपराभुक्त वैष्णब-काव्य से उन्होंने बिना संकोच लिया है और स्वयं ही बिहारीलाल-जैसे बंगाली कवियों का आभार माना है। अपने वातावरण अथवा युग से कोई अछूता नहीं रह सकता। इस तरह के प्रयास सफल कम ही हो पाते हैं और वास्तव में ऐसा प्रयास साधारणतः कवि में आत्म-विश्वास के अभाव का लक्षण-मात्र है। रवीन्द्रनाथ का विकास अपने समसामयिक समाज के प्रभाव में ही हुआ; लेकिन विकास की इस प्रक्रिया ने ही उन्हें ऐसा समर्थ बना दिया कि समय पा कर वे इन सबसे ऊपर उठ सके। एक बार माध्यम के संबंध में निश्चय कर लेने के बाद अपनी कविता के वक्तव्य-विषय और रूपविधान दोनों में ही वे प्रयोग करने में हिचकते नहीं थे और उन अनुभवक्षेत्रों से प्रेरणा ग्रहण करते थे जिनकी ओर पहले बंगला-काव्य में ध्यान नहीं दिया गया था। सच तो यह है कि उन्होंने इस विवाद को बहुत दूर तक खत्म ही कर दिया कि कविता का विषय क्या है और क्या नहीं है। 'क्षणिका' में हम उन्हें ऐसे प्रसंग का चुनाव करते हुए देखते हैं जिसमें प्रथम दृष्टि में किसी भी प्रकार की काव्यगत संभावना नहीं दीख पड़ती, लेकिन अपनी प्रतिभा के बल पर वे उसे सामान्य धरातल से ऊपर उठा देते हैं और सौन्दर्य के प्रकाश से उसे प्रकाशमय बना देते हैं। वर्ड्सवर्थ का यह दावा कि गंभीरतम अनुभूति को सहज ढंग से अभिव्यक्त किया जा सकता है और दैनंदिन जीवन की वास्तविकताओं को रहस्य के आलोक से आलोकित किया जा सकता है, रवीन्द्रनाथ की उस काल की बहुत सी कविताओं द्वारा समर्थित हो जाता है। हास्य और रुदन, विनोद और आवेग घुल-मिल कर अभिलाषा, उत्कंठा और तीव्र उपहास का अपरूप संयोग सम्पन्न कर देते हैं। 'कृष्णकली' (सं॰ ३५), 'यथास्थान' (सं॰ ३९) और 'सेकाल' (सं॰ ४०) आदि कविताओं में मनुष्य की चित्त-वृत्ति, आवेग और संवेदना का आश्चर्यजनक पारस्परिक घात-प्रतिघात देखने को मिलता है।