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उनके अन्तिम दिनों की कविताओं में तो वह और भी स्पष्ट दीखता है। मनुष्य के प्रयत्न और प्रचेष्टाएँ, उसकी आशाओं और असफलताओं तथा अपनी आकांक्षाओं और नित्य-प्रति के कार्य के साथ अपने को एक कर देने के उसके प्रयास भी इन उत्तरकालीन कविताओं में परिलक्षित होते हैं। अपने अन्तिम दिनों में रवीन्द्रनाथ को जो शारीरिक कष्ट भोगने पड़े थे, उसकी अभिव्यक्ति उन कविताओं में इतनी स्पष्टता और तीव्रता से की गई है, जिसकी समता शायद ही कहीं देखने को मिले। 'अवसन्न चेतनार गोधूलिवेलाय' (सं॰ ८८) अथवा 'ऋणशोध' (सं॰ ९१) आदि कविताओं में भाषा और अभिव्यक्ति का जो संयम दीख पड़ता है उसके साथ उनकी युवावस्था के प्रारंभिक काल की रचनाओं के प्राचुर्य और बेफ़िक्री का बहुत बड़ा अन्तर है। पिछले दिनों की कविताओं में न केवल संयम और किफ़ायतशारी का ही भाव है बल्कि उनमें पूर्णता और भरा-पूरा होने का भी भाव है। लगता है जैसे संसार और जीवन के साथ उन्होंने समझौता कर लिया है। संसार में दुःख और कष्ट हैं, जीवन में मृत्यु की छाया सदा ही पीछे लगी रहती है, लेकिन इन सभी कमियों के बावजूद जीवन अर्थपूर्ण है और अपने-आप में उसका एक महत्त्व है। 'ए जीवने सुन्दरेर' (सं॰ ९५), अथवा 'मधुमय पृथिवीर धूलि' (सं॰ ९६) आदि कविताओं में मृत्यु की घाटी की छाया में जीवन की विजय का भाव है।

 किसी कवि के मानसिक विकास पर प्रकाश डालना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। अनुभव के दूसरे-दूसरे क्षेत्रों में विकास का एक क्रम होता है, जो कुछ नियमों का अनुसरण करता है। लेकिन जहाँ तक काव्य का प्रश्न है, अन्तःप्रेरणा में रहस्यात्मक ढंग से ज्वार-भाटा आता रहता है और उसकी व्याख्या नहीं हो सकती। कभी-कभी किसी कवि की उत्कृष्ट कविताएँ तो उसकी युवावस्था के प्रारंभिक काल की लिखी हुई होती हैं और प्रौढ़ावस्था की रचनाएँ साधारण और पारंपरिक होती हैं। रवीन्द्रनाथ भी इसके अपवाद नहीं हैं। उनकी