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एकोत्तरशती

याहा पास ताइ भालो—
हासिटुकु, कथाटुकु,
नयनेर दृष्टिटुकु, प्रेमेर आभास।
समग्र मानव तुझ पेते चास
ए की दुःसाहस!
की आछे वा तोर!
की पारिबि दिते!
आछे कि अनन्त प्रेम?
पारिबि मिटाते
जीवनेर अनन्त अभाव?
महाकाश-भरा
ए असीम जगत्-जनता,
ए निबिड़ आलो-अन्धकार,
कोटि छायापथ, मायापथ,
दुर्गम उदय-अस्ताचल,
एरि माझे पथ करि
पारिबि कि निये येते
चिर सहचरे
चिर रात्रि दिन
एका असहाय?
ये-जन आपनि भीत, कातर, दुर्बल,
म्लान, क्षुधातृषातुर, अन्ध, दिशाहारा,


 याहा—जो; पास–पाओ; हासिटुकु—थोड़ी सी हँसी (टु का प्रयोग अत्यल्प परिमाण का बोध कराने के लिये किया जाता है।); तुइ...चास—तू पाना चाहता है; की...तोर—तुम्हारे पास क्या है; की...दिते—क्या दे सकोगे; आछे कि—क्या है; पारिबि मिटाते—मिटा सकेगा; जनता—भीड़; एरि...येते—इसीके बीच पथ बना कर क्या ले जा सकोगे; एका—अकेला, निःसंग; ये-जन—जो मनुष्य; आपनि—अपने ही; दिशाहारा—दिग्‌भ्रान्त;