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एकोत्तरशती

शान्त सन्ध्या, स्तब्ध कोलाहल।
निबाओ वासनावह्नि नयनेर नीरे।
चलो धीरे घरे फिरे याइ॥
२८ नवम्बर १८८७ ‘मानसी’


वधू

‘बेला ये पड़े एल, जल्‌के चल्।’
पुरोनो सेइ सुरे के येन डाके दूरे—
‘कोथा से छाया सखी, कोथा से जल!
‘कोथा से बाँधा घाट, अशथतल!
छिलाम आनमने एकेला गृहकोणे,
‘के येन डाकिल रे ‘जल्‌के चल्’॥

‘कलसी लये काँखे, पथ से बाँका—
बामेते माठ शुधु सदाइ करे धु धु,
डाहिने बाँशबन हेलाये शाखा।
दिघिर कालो जले साँझेर आलो झले,
‘दुधारे घन बन छायाय-ढाका।
गंभीर थिर नीरे भासिया याइ धीरे,
‘पिक कुहरे तीरे अमियमाखा।


 निबाओ—बुझाओ।

 बेला...एल—दिन ढल गया; पुरोनो—पुराना; के येन—कौन जैसे; डाके—पुकारता है; कोथा—कहाँ; अशथतल—अश्वत्थ तल, पीपल के नीचे; आनमने—अनमना; एकेला—अकेला (-ली)।

 बामेते—बाँयी ओर; माठ—मैदान; शुधु—केवल; सदाइ—सदा ही; डाहिने—दाहिने; हेलाये—झुलाता है, झोंका देकर झुकाता है; दिघिर—पुष्करिणी का, सरोवर का (दिधि-दीर्घिका); आलो—आलोक, प्रकाश; दुधारे—दोनों ओर; छायाय-ढाका—छाया से ढँका; भासिया—बह कर; अमियमाखा—अमृत से घोला हुआ;