পাতা:एकोत्तरशती — रवीन्द्रनाथ ठाकुर.pdf/৪৪

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वधू

पथे आसिते फिरे, आँधार तरु शिरे
सहसा देखि चाँद आकाशे आँका॥

अशथ उठियाछे प्राचीर टूटि,
सेखाने छुटिताम सकाले उठि।
शरते धरातल शिशिरे झलमल,
करबी थोलो थोलो रयेछे फुटि।
प्राचीर बेये बेये सबुजे फेले छेये
बेगुनि-फुले-भरा लतिका दुटि।
फाटले दिये आँखि आड़ाले बसे थाकि,
आँचल पदतले पड़ेछे लुटि॥

माठेर परे माठ, माठेर शेषे
सुदूर ग्रामखानि आकाशे मेशे।
एधारे पुरातन श्यामल ताल बन
सघन सारि दिये दाँड़ाय घेंसे।
बाँधेर जलरेखा झलसे, याय देखा,
जटला करे तीरे राखाल एसे।


आँका—अंकित।

 सेखाने—वहाँ; छुटिताम—दौड़ कर जाती; सकाले—सबेरे; शिशिरे—हिमकण से; करबी—कनेर; थोलो थोलो—थोक थोक; प्राचीर...बेये—प्राचीर का सहारा ले ले कर फैलने वाली; सबुजे—हरियाली; फेले छेये—फैलाती हुई; दुटि—दो; फाटले—दरार में; दिये आँखि—दृष्टि लगा कर; आड़ाले...थाकि—ओट में बैठी रहती हूँ; पड़ेछे लुटि—लोट पड़ा है।

 माठेर...माठ—मैदान के बाद मैदान, विस्तीर्ण क्षेत्र; ग्रामखानि—ग्राम, गाँव; मेशे—मिला हुआ; एधारे—इस तरफ़, इस ओर; ताल—ताड़; सारि—पंक्ति; सघन...घेंसे—(तालबन की) सघन पंक्ति स्पर्श करती हुई खड़ी है; झलसे—चमकती है; जटला...एसे—तीर पर आ कर चरवाहे इकट्ठा होते हैं;