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एकोत्तरशती
१०

चलेछे पथखानि कोथाय नाहि जानि,
के जाने कत शत नूतन देशे॥

हाय रे राजधानी पाषाण काया!
विराट मुठितले चापिछे दृढ़बले
व्याकुल बालिकारे, नाहिको माया।
कोथा से खोला माठ, उदार पथघाट,
पाखिर गान कइ, बनेर छाया॥

के येन चारिदिके दाँड़िये आछे,
खुलिते नारि मन शुनिबे पाछे।
हेथाय बृथा काँदा, देयाले पेये बाधा
काँदन फिरे आसे आपन-काछे॥

आमार आँखि जल केह ना बोझे।
अबाक हये सबे कारण खोँजे।
'किछुते नाहि तोष, ए तो विषम दोष,
ग्राम्य बालिकार स्वभाव ओ ये।


चलेछे...जानि—नहीं जानती पथ कहाँ जाता है; के...देशे—कौन जानता है कितने सैकड़ों नवीन देश में।

 मुठितले—मूठी में; चापिछे—दबाता है; बालिकारे—बालिका को; नाहिको माया—ममता नहीं है; खोला माठ—खुला मैदान; उदार—प्रशस्त; पाखिर गान—पक्षियों का गान; कइ—कहाँ।

 के येन...पाछे—कौन जैसे चारों ओर (घेर कर) खड़ा है, (अपना) मन खोल नहीं पाती, पीछे सुन न ले; हेथाय—यहाँ; काँदा—क्रन्दन; देयाले...काछे—दीवार की बाधा पा कर क्रन्दन अपने ही पास लौट आता है।

 केह...बोझे—कोई नहीं समझता; अबाक...खोँजे—अबाक हो कर सभी कारण खोजते हैं; किछुते...तोष—किसी (वस्तु) से संतोष नहीं होता; ओ ये—वह है जो;