পাতা:एकोत्तरशती — रवीन्द्रनाथ ठाकुर.pdf/৪৬

এই পাতাটির মুদ্রণ সংশোধন করা হয়েছে, কিন্তু বৈধকরণ করা হয়নি।
११
वधू

स्वजन प्रतिवेशी एत ये मेशोमेशि
ओ केन कोणे बसे नयन बोजे!'

केह वा देखे मुख, केह वा देह—
केह वा भालो बले, बले ना केह।
फुलेर मालागाछि बिकाते आसियाछि—
परख करे सबे, करे ना स्नेह॥

सबार माझे आमि फिरि एकेला।
केमन करे काटे साराटा बेला।
इँटेर 'परे इँट, माझे मानुष-कीट—
नाइको भालोबासा, नाइको खेला॥

कोथाय आछ तुमि कोथाय मा गो,
केमने भुले तुइ आछिस हाँगो!
उठिले नव शशी छादेर 'परे बसि
आर कि रूपकथा बलिबि ना गो?
हृदयवेनाय शून्य बिछानाय
बुझि मा, आँखिजले रजनी जाग!
कुसुम तुलि लये प्रभाते शिवालये
प्रवासी तनयार कुशल माग॥


प्रतिवेशी—पड़ोसी; एत—इतना; मेशोमेशि—मिलना जुलना; ओ...बोजे—वह कोने में आँखें बन्द कर क्यों बैठी रहती है।

 केह...केह—कोई अच्छा कहता है, कोई नहीं कहता; फुलेर मालागाछि...आसियाछि—(मैं) फूल की माला मात्र (हूँ), बिकने आई हूँ।

 सवार...एकेला—सबके बीच अकेली फिरती हूँ; केमन...बेला—कैसे सब समय कटे; इँटेर...इँट—इँट के ऊपर इँट है; नाइको...खेला—न स्नेह है, न क्रीड़ा (का आयोजन)।

 कोथाय...हाँगो—कहाँ हो तुम कहाँहो माँ, कैसे तू (मुझे) भूली हुई हो; उठिले...बलिबि ना गो—नव-चन्द्रमा के उदय होने पर छत पर बैठ क्या और दन्तकथाएँ नहीं सुनाओगी; माग—माँगती हो।