পাতা:কাদম্বরী (হরিদাস সিদ্ধান্তবাগীশ).pdf/১৪৯

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१२८ कांदंशबरी पूर्वभागे इव बाखातप-कपिख , रवि-रथ इव इढ-नियमिताचचक्र , सुराजेव निगूढ़-मन्त्रसाधन-चपित(१) विग्रह, जखधिरिव (२) कराल-गडमण्डखावत्त-नाभिगत , (३) भगीरथ इव दृष्ट-गङ्गावतार , (४) मधुकर (५) इवासष्ठादनुभूत-पुष्कर वन वास , (श) वनचरोऽपि छत-महालयप्रवेश (ष) प्रसयतोऽपि मोचार्थों, (स) .۔--. --م۔۔۔۔۔۔۔" -سہ۔--سا - جمعہ۔ -ی~~ मुख बख चारक प्राककाल इव सन्ध्यावत् पिछले पिछलवण तारके कनौनिकै यस्य स । महापुरुषलचषमतt ! तथा च सामुद्रक - वृद्रोऽपि चक्रवर्ती खात् पौततारकचद्युषि । पचे सव्यया सयाकालबर्षग पिघ्नखारतारका नचब्राचि यत्र स । प्रभातकाल इव वाखातपवत् नूतनसूर्याखीकवत् कपिख पिन्नखवण अन्वत्र तु वाखातपेग कपिख । रवे सूर्यसा रघ इव दृढ़ यथा स्यातथा नियमित व्यवख्यापित निग्टईौतम् अचचक्रम् इन्द्रियसमूही येन स थचत्र तु दृढ नियमितानि बदनि अची ध्रुवी मध्यदी रथाक्लानि च यत्र स । योभनी राजा इति सुराजwखतिभ्यां पूजायां प्राग बड़औई रिति भदन्ततानिषेध खकार्यदची नृपति स इव निगूढ गृप्त यत् मन्त्र साधनम् इष्टदेवतामकोपासन तेन चपित श्रमीपवासादिवाइख्यात चौशैक्कत विग्रह शरौर येन स । राशपवे तु निगूढ़न गुप्तोन मन्त्रसाधनेन मन्त्रणाकरणेन चपित प्रग्रमिती विग्रही युद्ध येन स । जलधि समुद्र इव कराषी दन्तुर उघ्रतावनयी थ बड़ तख मण्ड़खावतवत मख्खाकारधमिबत नाभिगताँ यस्य स जखधिपचे तु कराखण्ड इइच्छड़ लख्खावताँ मख्खाकारेण जखश्वनिथ नाभिगत इव तत्र स । भगैौरथ इव दृष्टी गङ्गाया अवतारीऽवतरण खानं हरिदारं खगैब्रियतनच येण स । मधुकरो धनर द्रव थसक्कदनेकवानान् चतुभूत तपस्यार्थे प्रत्यचौल्लत पुष्करै तदाख्यतीथे वने नझारण च वासोऽनखानं येन स पचे मधुपानाथमसछदनुभूत पुष्करवने पद्मवने बासी येन स । (ध) वनेति । वनचरीऽपि वनवासौ सब्रपि क्वती महाखयेषु अङ्कालिकासु प्रवेशी येन स इति विरोध झती बीगाभ्यासेन विहित महाखये परमातमनि प्रवेशी शानगोचरता येन स इति ततसमाधानम् । इत प्रश्वति सब्रिहितेत्यादिवाक्यान्त याबत सव ब्र झषानुप्राणिती विरौधासोऽखड़ार । महालयी विहारं स्यात् तैौथ च परमाकानि । इति मेदिनी । SSAS SSAS SSAS مسی S AMMM SSAAAAS S ASAAAAAS AAAAA SAAAAAS AAAAAA ASA SSASAS SSAS SSAS হারীতও তেমন সৰ্ব্বদা তপস্তা করিয়া নরকে যাইবার ভয় নিবারণ করিয়াছিলেন প্রদোষ৷ রম্ভকালে নক্ষত্রসমুহ যেমন সন্ধ্যারা.গ পিঙ্গলবর্ণ থাকে, তাহার নয়নের তারযুগলও তেমন সন্ধ্যাকালের স্থায় পিঙ্গলবর্ণ ছিল, প্রাত কাল যেমন নুতনরৌদ্রে পিঙ্গলবর্ণ হইয়া যায়, হাৰীতও তেমন স্বকীয়তেজে নুতন রৌদ্রের স্তায় পিঙ্গলবর্ণ হইয়াছিলেন, স্বর্ঘ্যের রথে যেমন অক্ষদও ও চক্রসকল দৃঢ়ৰূপে আবদ্ধ আছে, হারতের ইন্দ্ৰিয়সমূহও তেমন দৃঢ়ভাবে আবদ্ধ (নিগৃহীত) ছিল, কার্ধ্যদক্ষ রাজা যেমন গুপ্তভাবে মন্ত্রণা করিয়া যুদ্ধের নিবৃত্তি করিয়া থাকেন, হাৱীতও তেমন গুপ্তভাবে ইষ্টমন্ত্রের উপাসনা করিয়া শরীর ক্ষয় করিয়াছিলেন, সমুদ্রে BDDD DBBB BBBDZD DDD BBBD DBBBB BBB SBBBS BB BBB BBB একটা বৃহৎ শখ থাকে, হারীতেরও তেমন অসমান শঙ্খপুচ্ছের স্থায় গোলাকার নাভিগর্ত ছিল, ভগীরথ যেমন ভূতলে গঙ্গার অবতরণ দেখিয়ছিলেন, হরীতও তেমন গঙ্গার অবতরণ স্থান হরিদ্বার দেখিয়াছিলেন, ভ্রমর যেমন মধুপানের নিমিত্ত পদ্মবনে বাস করে, হারওও তেমন তপস্তার নিমিত্ত পুষ্করতীর্থে ও মহারণ্যে বাস করিয়াছিলেন। (খ) হাবীত বনটর (१) चवित । (२) जलनिधिरिव । (३) आवच गति । (५) भसल्लङ्घट । (५) अमर ।