भाराभुग्नावमज्जन्-मणिविधुर-शिरश्चक्र-साहायकार्थं
शेषे-
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नोदस्त-दोष्णा त्वरिततर मधोध स्तमेवानुयातम्॥(৭)
यत्‑प्रस्थाने प्रचलित-बलास्फालना-दुल्ललद्भि-
र्धूलीपूरैः पिहि-
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त-सकल-व्योमभि र्भूतधात्र्याः।
संप्राप्तायाः परमतनुतां चक्रवालं फणानां
मग्नोन्मीलन्-मणि फणिपते र्ला-
१६
घवादुल्ललास॥(৮)
विरुद्ध‑विषय‑क्षोभाद् यस्य कोपाग्नि रौर्ववत्।
अनिर्वृति प्रजज्वाल चतुरम्भोधिवारितः॥(৯)
१७ येऽभूवन् पृथु-रामराघव-नल-प्राया धरित्रीभुज-
स्तानेकत्र दिदृक्षुणेव निचितान् सर्व्वान् सम म्वेधसा।
ध्व-
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स्ताशेष-नरेन्द्र-मानमहिमा श्रीधर्म्मपालः कलौ
लोल-श्री-करिणी-निबन्धन-महास्तम्भः समुत्तम्भितः॥(১০)
यासां
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नासीर-धूली-धवल-दशदिशां द्रागपश्यन्नियत्तां
धत्ते मान्धातृसैन्य-व्यतिकरचकितो ध्यानतन्द्री म्महेन्द्रः।
२० तासामप्याहवेच्छा-पुलकित-वपुषा म्वाहिनीना म्विधातुं
साहाय्यं यस्य वाह्वो र्निखिल-रिपुकुलध्वंसिनो र्ना-
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वकाशः॥(১১)
^(৮) মন্দাক্রান্তা।
^(৯) অনুষ্টুভ্। এই শ্লোকের “অনির্বৃতি”-শব্দকে “অনির্বৃত্তি” রূপে পাঠ করিবার জন্য অধ্যাপক কিল্হর্ণ নির্দ্দেশ করিয়াছেন। অতীতকাল-বিজ্ঞাপক [প্রজজ্বাল] ক্রিয়াপদের সহিত অন্বিত “অনির্বৃতি”-শব্দ কোনরূপ সঙ্গত অর্থ দ্যোতিত করিতে পারে কি না, তাহা চিন্তনীয়।
^(১০) শার্দ্দূল-বিক্রীড়িত।
^(১১) স্রগ্ধরা।
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