পাতা:গৌড়লেখমালা (প্রথম স্তবক).djvu/৫৯

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বীরদেব-প্রশস্তি।

संसार-सागर-समुत्त-
रणैकसेतुः॥(১)
अस्यास्मद् गुरवो बभूव रबलाः सम्भूय हर्त्तूं मनः
का लज्जा यदि केवलो न बलवानस्मि त्रिलोकप्रभौ।
इत्यालोचयते-
व मानसभुवा यो दूरतो वर्ज्जितः
श्रीमान् विश्व मशेष मेतदवताद्वोधौ स वज्रासनः॥(২)
अस्त्युत्तरापथ-विभूषण-भूतभूमि-
र्द्देशोत्तमो न-
गरहार इति प्रतीतः।
तत्र द्विजाति रुदितोदित-वंशजन्मा
नाम्नेन्द्रगुप्त इति राजसखो बभूव॥(৩)
रज्जेकया द्विजवरः स गुणी गृ-
हिण्या
युक्तो रराज कलया[ऽ]मलया यथेन्दुः।
लोकः पतिव्रतकथा-परिभावनासु
संकीर्त्तनं प्रथममेव करोति यस्याः॥(৪)
ताभ्यामजा-
यत सुतः सुतरां विवेकी
यो बाल एव कलितः परलोक-बुद्ध्या।
सर्व्वोपभोग-सुभगेपि गृहे विरक्तः
प्रव्रज्यया सुगत-शासनमभ्युपे(पै)-
तुम्॥(৫)

^(১)  বসন্ততিলক।

^(২)  শার্দ্দূলবিক্রীড়িত।

^(৩)  বসন্ততিলক।

^(৪)  বসন্ততিলক।

^(৫)  বসন্ততিলক। এই শ্লোকের শেষ শব্দ [अभ्युपैतुम्] “अभ्युपेतुम्” রূপে উৎকীর্ণ রহিয়াছে।

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