3. - - विषांडा कईक श्रानिडे श्रेब्रा फूउगमूर ऋडेि कब्रिप्ङ यसूख ছন, দক্ষ প্রজাপতি প্রথমে ঋষি, দেবতা, গন্ধৰ্ব্ব, জম্বর, ब्रांकन, वक्र, फूड, निनांठ, *७, १भौ ७ मृग यफूडि८क ४४tभ प्रांमध्ण एडेि कटग्नन, किड witग्न cनषिष्णन मांननऋडे (aज श्रांद्र बूकि भाहेरङ८झ नl, फ५न डिनि यणान्ह४िब्र छे९क$ बांगना छौभूझब गश्रयनं८णं विदि१ eवंागैब्र रुटेि कद्राहे ८४ब्र:कझ हिब्र कब्रिटणन, ठथन डिनि रीौब्र१ ॐजां★डिग्न अनिझैौ नांtभ ५क कछttक विशाह कब्रिtणन । *tग्न প্রজাপতি দক্ষ ঐ আসিরীর গর্তে পঞ্চসহস্ৰ বীৰ্যবানু পুত্র উৎপাদন করেন, ইহার ও প্রজাস্থষ্টির জঙ্গ অতিশর বাতিব্যস্ত হইলেন। ইছার ব্ৰহ্মার মানসপুত্র নারদের উপদেশে নিরুफिडे एन । मन ‘aहे शूखांख छांनिग्र! नtग्नल८क मशहांद्र कtब्रन । उच। ७iश्। खtनि८एठं श्रiद्विघ्र! वध्रश् tिoहा निकृt एषIणिनि! श्रूय ७थार्थन कtब्रन । ऊांश८ङ नक्र कश्tिणन, पञांमि ५रे निअ कलt अनिर्ब्रौष्क ७धनांन कब्रिटङझि, हेदांग्न श्रृंtéहे नां ब्रएमग्न পুনৰ্ব্বার জন্ম হুইবে । অতএব ইহাকে লইয়া কপ্তপকে প্রদান করুন, এইকথা বলিয়া তিনি ব্ৰহ্মার হস্তে এই কস্তাকে অর্পণ করেন। অভিসম্পাভ তয়ে কগুপ এই কন্তু গ্রহণ করেন এবং ইহার গর্ডে নারদকে পুনয়ায় উৎপাদন করিলেন । তৎপরে প্রজাপতি দক্ষ ধৰ্ম্মপত্নী বীরণতনয়াতে झझैिज१षा क रुकृब्रि श्रृष्टि रुब्लिग्न १¥tक ग्र¥, क३)•itक ত্রয়োদশ, সোমকে সপ্তবিংশতি, অপ্লিষ্টনেমিকে চারি, বন্ধু পুত্রকে ছুই, অঙ্গির ও কুশাশ্বকেও দুই চারিট कब्रिग्रां रुझांनान कतिप्शन । अग्नम्झडी, रुन्न, शांभैौ, शष, छांष्ट्र, भक्रपश्यैौ, ग९कझा, भूङ्6, नाषji ७ विश्व uहे म*णै कछ थ"ई थठि6श् फtब्रन । *tन विश्वt एऐtङ दिईtनरुश्रृं★, जाक्षा श्रेष्ठ गाथा', गङ्गरूडौ श्रेष्ठ भक्रस्९५५, बन्न झ्रेप्ङ यश्श्र१, छांध्र श्रेष्ठ ठां★, भूहूर्वी रहेcठ भूडूरीं★१, णन्ना रुहेcड cपाश, बांमैौ इश्tठ मांभ्रंदौरी, अग्रकर्डौ श्रेष्ठ •iार्थिरु পদার্থ সকল, সংকল্প হইতে সৰ্ব্বাস্বরূপ সংকল্প এবং ৰামিনী नाभौथैौ शहेtछ जूषण गभूडूड इन । uश्मc" काम ५क घच ७यछो”छि श्रे८ङ क्लङ्गोल्लङ्ग जभ९ श्रृहे श्रेरङ शभिण । (হরিবংশ ২-৩ অ” ) जैल्वेश्रडोभक्८७ भएकङ्ग विश्व्र ७ रेक्ष” निषिज्र अttश्aजांशंकि घच अक्रांद्र अषङ, मछ्कछ eधंरकिब्र गश्ङि हेहाब्र विवांश् श्इ ॥ ७३ यशडिग्न भté ५७bी ठनब्रां ॐ९*ब्र इब्र, aई ४४*ी कछfब्र म८ष ४eछैौ षन्ई८क, ४षt) अभि८फ ७ ७कऎी निकृनंगटक यहाँन कप्इन । गाउँी नांरभ अछ *क है कछ मदtध्दष क्षिांए कप्बम । मजt"ङि नच अलाख शिश्नः t સન્મ 1 नक - T - -- झरिक्लरु९गण झ्tिणन । किरू cकांन नभरग्न विश्ववटेशृ१ ५कप्रैौ ठूए९ वtब्ब्र अन्नईॉन कtजन ।। ७३ दtख नकग দেবতা উপস্থিত ছিলেন, প্রজাপতি দক্ষ যখন এই যজ্ঞে আগমন করেন, তখন সকলেই তাছাকে দেখিয়া উঠিয়া फॅफ़ाहेtणन, cकरुण बक्री ७ त्रिरा हेशद्रt झहेजरन ऍर्टिरणन म? । अत्र श्रांगन &श्११र्षाढ भश्ttनरा निछांनtनहे छे*दिहे রছিলেন, দঙ্গকে কোনরূপ সন্মান প্রদর্শন করিলেন না। দক্ষ ইহাতে কোপে উন্মত্ত প্রায় হইরা শিবের নিন্দ আরম্ভ रुग्निtणन । भशांद्मद क्रछे हट्रेtठन नां, नडांब्र भ८५jई पनिग्रां রছিলেন । দক্ষ কেবল শিবনিন্দ করিয়াই ক্ষস্তি হইলেন না, এমন কি ক্রোধে জলস্পর্শপূৰ্ব্বক এই অভিশাপ দিলেন, “এই দেবীধম শিব, ইন্দ্র ও উপেন্দ্রীদির সহিত যেন বজ্ঞভাগ @iख न इग्न ।’ #हे *t* लिङ्ग ८ङ्गtशृङtद्र ७हे शांन श्हेtऊ श्रृंcरु टाउTां*उ रहेtणन ।। ७लिरक शिग्निशंष्ट्रिहब्र ननौभंग्र শাপের বিষয় অবগত হইলেন ও অতিশয় ক্রুদ্ধ হইয় श्tश्tनि! ॥८णकानि दt oj चाष्ट्र:भानि निघ्नtछ्णि, उठ[श्iश्रि। यतः প্রতিশাপ দিয়া কহিলেন, “মহাদেব কখন কাহারও অপকার क८द्रन न । ठांशझ 2ाडि सांहाझ! विदिहे झ्हेtरा, डाशtना কোন কার্ধ্যসিদ্ধ হইবে না । এই দক্ষের বুদ্ধি দেহকে আত্মা বলিয়া ধ্যান করে এবং সে আত্মতত্ব বিস্মৃত হইয়াছে, श्ाितः १७व्र गमtन निडtखं लौकि[भौ श्रैयरः ५१ि एबहि:न हेशद्र इशrगब्र छात्र भूष हडैरु । दखडः dहे मरकज़ शश्वতুল্য বদন হওয়াই উপযুক্ত, কেননা এ অবিস্তাকে তত্ত্ববিদ্যা cदां५ कब्रिग्र ४icफ, ७रेछछ ५ राखरे झाँ१ ।' uहे १गिप्रl অভিশাপ দেন । খণ্ডর দক্ষ এযং জামাতা শিব সৰ্ব্বঙ্গ এইরূপে পরম্পর ধিৰেব চলিতে লাগিল। কিছুকাল পরে পরমেষ্ঠী ব্রহ্ম। अक्रएक जकडा 2छtwडिब्र फञान्ज्रिा थप्नान रुब्रिएणन । हेश्¥ड भएक्रङ्ग क्लिएस अङ्क्राख्न आँब्रस योझैौर्ख श्हेब्र! फेणि । उथन डिनि दूश्लैष्ठि नांtभ ॐ९ङ्गडे वछ जांग्रड कब्रिtणन । ७हे रुएस्त्र बिप्णरु निभड्रिउ श्हेण । cकयण भइएनय ७ गउँोच्न निभज्ञ५ रहेण न । नजैौ यखा दूखांख तनिरठ नाहेब्र रुङ ऋण षांऐवाग्न छछ भशtनरयन्न निकै बांब्रचाब्र थार्थना शब्रिtङ जाभिtणन । बहाँप्नब जउँौ८रा थखाइ८ण शांहे८छ् किङ्गुष्ठरे चश्मछि कब्रिप्णन मा। गंडी किरू बिना निमजप्4 পিত্রালয়ে গমন করিলেন এবং সেই যজ্ঞস্থলে পিস্তৃকর্তৃক अणमानिङ श्रेबो आग"ब्रिजाश्र कब्रिएनन। बराप्त মারদ মুখে সতীয় প্রাণত্যাগের কথা শুনিয়া অতিশয় জোখঃ
পাতা:বিশ্বকোষ অষ্টম খণ্ড.djvu/২৮৬
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