পাতা:হিতোপদেশঃ (লক্ষ্মীনারায়ণ ন্যায়ালঙ্কার).pdf/২৬১

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२४४ ॥ fइति पदॆश्ः ॥ चरे गेोप केामी लहासतीं निरुपवितु समर्थः मम यवहारमकखासमछैो खेाकपाखाएक् जागति । थतः ॥ चादित्यचन्द्रावनिर्जेऽनलश्व वै.भूमिरापेतः हृदयंयमश्व। चइख राचिख उभे च शन्धे थगर्मश्व जानाति नरख दृक् ॥ यथहं परमरुती खो बं विहा यान्यं न जाने पुरुषान्तरं खन्नेऽपि नहि भजे तेंन धर्मण ब्रिापि मम नासिका चछि ब्राख्नु भयो त्वंभस्त्र कर्नु भक्यते किन्तु खानी त्वं खेोकभयादुपेचने पश्य मन्मुखं ततेो यावदसैा गेोपेादीपं प्रज्वाख्य तन्मुखरावलेाकते ताब दुश्चरं मुख मवशेक्यि तचरण्यॆाः प्रतित्ः धन्येष्टिं यस्वदृशी भार्य्येी षरसंसाध्वीति चेीयमाज्ञे चाधुरेतृषु तान्तमपि कथयामि चयं खद्यहाग्निर्गतोद्दादशवर्षे #लयेपकण्ठादिमी नगरीमनुप्राप्तः ॥ * ॥ न्तर ۔ بہتی ہےبہ:پہیہ আরে গোপ আমি মহাসতী আমাকে কে নিরূপন করিতে পারে জামার নিম্পাঁপ ব্যবহার অষ্ট দিকপালের জানেন যেহেতুক সূর্য চন্দ্র বায়ু অগ্নি স্বৰ্গ পৃথিবী জল অন্তঃকরণ যক্ষ দিব্য রাৰি দুই সন্ধা ধর্ম ইহাৱা মনুষ্যের চরিত্র জানেন যদি আমি পরম সত্ৰী হই স্কোমাকে ত্যাগ করিয়া অন্যকে না জনি অন্য পুরুকে প্রেক্তে ও মা ভৰি ভৰে সেই পুণ্যে ভে আমার খছিন্ন নাসা স্বচ্ছিন্না হউক জাৰি ভোৰকে