एकोत्तरशती/प्राण
(পৃ. ३-४)
प्राण
मरिते चाहि ना आमि सुन्दर भुवने,
मानवेर माझे आमि बाँचिबारे चाइ।
एइ सूर्यकरे एइ पुष्पित कानने
जीवन्त हृदय-माझे यदि स्थान पाइ!
धराय प्राणेर खेला चिरतरङ्गित,
विरह मिलन कत हासि-अश्रुमय—
मानवेर सुखे दुःखे गाँथिया संगीत
यदि गो रचिते पारि अमर-आलय!
ता यदि ना पारि तबे बाँचि यत काल
तोमादेरि माझखाने लभि येन ठाँइ,
तोमरा तुलिबे बले सकाल बिकाल
नव नव संगीतर कुसुम फुटाइ।
हासिमुखे नियो फुल, तार परे हाय
फेले दियो फुल, यदि से फुल शुकाय॥
मरिते....ना—मरना नहीं चाहता; माझे—मध्य में, बीच में; बाँचिबारे—बँचना, जीना; एइ—इस; धराय—पृथ्वी पर; कत—कितना; गाँथिया—गूँथ कर; रचिते पारि—रच सकूँ, बना सकूँ; ता—उसे; यत—जितना; तोमादेरि—तुमलोगों के; माझखाने—मध्य में, बीच में; लभि—लाभ करुँ, प्राप्त करुँ; येन—जिसमें; ठाँइ—जगह, स्थान; तोमरा तुलिबे बले—तुमलोग तोड़ोगे इसलिये; सकाल—सबेरे; बिकाल—अपराह्न; फुटाइ—प्रस्फुटित करता हूँ; नियो—लेना; तार परे—उसके बाद; फेले दियो—फेंक देना; शुकाय—सूख जाय।