রামপূজন তিওয়ারি সম্পাদিত
(পৃ. -१२)

वधू

‘बेला ये पड़े एल, जल्‌के चल्।’
पुरोनो सेइ सुरे के येन डाके दूरे—
‘कोथा से छाया सखी, कोथा से जल!
‘कोथा से बाँधा घाट, अशथतल!
छिलाम आनमने एकेला गृहकोणे,
‘के येन डाकिल रे ‘जल्‌के चल्’॥

‘कलसी लये काँखे, पथ से बाँका—
बामेते माठ शुधु सदाइ करे धु धु,
डाहिने बाँशबन हेलाये शाखा।
दिघिर कालो जले साँझेर आलो झले,
‘दुधारे घन बन छायाय-ढाका।
गंभीर थिर नीरे भासिया याइ धीरे,
‘पिक कुहरे तीरे अमियमाखा।

पथे आसिते फिरे, आँधार तरु शिरे
सहसा देखि चाँद आकाशे आँका॥

अशथ उठियाछे प्राचीर टूटि,
सेखाने छुटिताम सकाले उठि।
शरते धरातल शिशिरे झलमल,
करबी थोलो थोलो रयेछे फुटि।
प्राचीर बेये बेये सबुजे फेले छेये
बेगुनि-फुले-भरा लतिका दुटि।
फाटले दिये आँखि आड़ाले बसे थाकि,
आँचल पदतले पड़ेछे लुटि॥

माठेर परे माठ, माठेर शेषे
सुदूर ग्रामखानि आकाशे मेशे।
एधारे पुरातन श्यामल ताल बन
सघन सारि दिये दाँड़ाय घेंसे।
बाँधेर जलरेखा झलसे, याय देखा,
जटला करे तीरे राखाल एसे।

चलेछे पथखानि कोथाय नाहि जानि,
के जाने कत शत नूतन देशे॥

हाय रे राजधानी पाषाण काया!
विराट मुठितले चापिछे दृढ़बले
व्याकुल बालिकारे, नाहिको माया।
कोथा से खोला माठ, उदार पथघाट,
पाखिर गान कइ, बनेर छाया॥

के येन चारिदिके दाँड़िये आछे,
खुलिते नारि मन शुनिबे पाछे।
हेथाय बृथा काँदा, देयाले पेये बाधा
काँदन फिरे आसे आपन-काछे॥

आमार आँखि जल केह ना बोझे।
अबाक हये सबे कारण खोँजे।
'किछुते नाहि तोष, ए तो विषम दोष,
ग्राम्य बालिकार स्वभाव ओ ये।

स्वजन प्रतिवेशी एत ये मेशोमेशि
ओ केन कोणे बसे नयन बोजे!'

केह वा देखे मुख, केह वा देह—
केह वा भालो बले, बले ना केह।
फुलेर मालागाछि बिकाते आसियाछि—
परख करे सबे, करे ना स्नेह॥

सबार माझे आमि फिरि एकेला।
केमन करे काटे साराटा बेला।
इँटेर 'परे इँट, माझे मानुष-कीट—
नाइको भालोबासा, नाइको खेला॥

कोथाय आछ तुमि कोथाय मा गो,
केमने भुले तुइ आछिस हाँगो!
उठिले नव शशी छादेर 'परे बसि
आर कि रूपकथा बलिबि ना गो?
हृदयवेनाय शून्य बिछानाय
बुझि मा, आँखिजले रजनी जाग!
कुसुम तुलि लये प्रभाते शिवालये
प्रवासी तनयार कुशल माग॥

हेथाओ ओठे चाँद छादेर पारे,
प्रवेश मागे आलो घरेर द्वारे।
आमारे खुँजिते से फिरिछे देशे देशे,
येन से भालोबेसे चाहे आमारे।
निमेष-तरे ताइ आपना भुलि
व्याकुल छुटे याइ दुयार खुलि।
अमनि चारिधारे नयन उँकि मारे,
शासन छुटे आसे झटिका तुलि॥

देबे ना भालोबासा, देबे ना आलो!
सदाइ मने हय, आँधार छायामय
दिघिर सेइ जल शीतल कालो,
ताहारि कोले गिये मरण भालो।
डाक लो डाक तोरा, बल् लो बल—
'बेला ये पड़े एल, जल्‌के चल्।'
कबे पड़िबे बेला, फुराबे सब खेला,
निबाबे सब ज्वाला शीतल जल,
जानिस यदि केह आमाय बल्॥
२३ मई १८८८  'मानसी'


 बेला...एल—दिन ढल गया; पुरोनो—पुराना; के येन—कौन जैसे; डाके—पुकारता है; कोथा—कहाँ; अशथतल—अश्वत्थ तल, पीपल के नीचे; आनमने—अनमना; एकेला—अकेला (-ली)।

 बामेते—बाँयी ओर; माठ—मैदान; शुधु—केवल; सदाइ—सदा ही; डाहिने—दाहिने; हेलाये—झुलाता है, झोंका देकर झुकाता है; दिघिर—पुष्करिणी का, सरोवर का (दिधि-दीर्घिका); आलो—आलोक, प्रकाश; दुधारे—दोनों ओर; छायाय-ढाका—छाया से ढँका; भासिया—बह कर; अमियमाखा—अमृत से घोला हुआ; आँका—अंकित।

 सेखाने—वहाँ; छुटिताम—दौड़ कर जाती; सकाले—सबेरे; शिशिरे—हिमकण से; करबी—कनेर; थोलो थोलो—थोक थोक; प्राचीर...बेये—प्राचीर का सहारा ले ले कर फैलने वाली; सबुजे—हरियाली; फेले छेये—फैलाती हुई; दुटि—दो; फाटले—दरार में; दिये आँखि—दृष्टि लगा कर; आड़ाले...थाकि—ओट में बैठी रहती हूँ; पड़ेछे लुटि—लोट पड़ा है।

 माठेर...माठ—मैदान के बाद मैदान, विस्तीर्ण क्षेत्र; ग्रामखानि—ग्राम, गाँव; मेशे—मिला हुआ; एधारे—इस तरफ़, इस ओर; ताल—ताड़; सारि—पंक्ति; सघन...घेंसे—(तालबन की) सघन पंक्ति स्पर्श करती हुई खड़ी है; झलसे—चमकती है; जटला...एसे—तीर पर आ कर चरवाहे इकट्ठा होते हैं; चलेछे...जानि—नहीं जानती पथ कहाँ जाता है; के...देशे—कौन जानता है कितने सैकड़ों नवीन देश में।

 मुठितले—मूठी में; चापिछे—दबाता है; बालिकारे—बालिका को; नाहिको माया—ममता नहीं है; खोला माठ—खुला मैदान; उदार—प्रशस्त; पाखिर गान—पक्षियों का गान; कइ—कहाँ।

 के येन...पाछे—कौन जैसे चारों ओर (घेर कर) खड़ा है, (अपना) मन खोल नहीं पाती, पीछे सुन न ले; हेथाय—यहाँ; काँदा—क्रन्दन; देयाले...काछे—दीवार की बाधा पा कर क्रन्दन अपने ही पास लौट आता है।

 केह...बोझे—कोई नहीं समझता; अबाक...खोँजे—अबाक हो कर सभी कारण खोजते हैं; किछुते...तोष—किसी (वस्तु) से संतोष नहीं होता; ओ ये—वह है जो; प्रतिवेशी—पड़ोसी; एत—इतना; मेशोमेशि—मिलना जुलना; ओ...बोजे—वह कोने में आँखें बन्द कर क्यों बैठी रहती है।

 केह...केह—कोई अच्छा कहता है, कोई नहीं कहता; फुलेर मालागाछि...आसियाछि—(मैं) फूल की माला मात्र (हूँ), बिकने आई हूँ।

 सवार...एकेला—सबके बीच अकेली फिरती हूँ; केमन...बेला—कैसे सब समय कटे; इँटेर...इँट—इँट के ऊपर इँट है; नाइको...खेला—न स्नेह है, न क्रीड़ा (का आयोजन)।

 कोथाय...हाँगो—कहाँ हो तुम कहाँहो माँ, कैसे तू (मुझे) भूली हुई हो; उठिले...बलिबि ना गो—नव-चन्द्रमा के उदय होने पर छत पर बैठ क्या और दन्तकथाएँ नहीं सुनाओगी; माग—माँगती हो।  हेथाओ—यहाँ भी; छादेर पारे—छत के पार; आमारे...आमारे—मुझे खोजते वह स्थान-स्थान घूम रहा है, जैसे वह मुझसे प्रेम करना चाहता है; निमेष-भरे...खुलि—इसीलिए क्षण भर के लिये अपनेको भूल व्याकुल दौड़ कर जाती हूँ (और) दरवाजा खोलती हूँ; अमनि...तुमि—वैसे ही चारों ओर से आँखें छिप छिप कर देखने लगती हैं (और) शासन (सास आदि) झाड़ू उठाये दौड़ा आता है।

 देबे ना—नहीं देगा; सदाइ...हय—सदा ही मन में होता है; कालो—काला; ताहारि—उसीकी; कोले—गोद में; गिये—जा कर; डाक—पुकार; कबे...बेला—कब समय पूरा होगा; फुराबे...खेला—सब खेल समाप्त होगा; निबाबे—बुझा देगा; जानिस...बल्‌—(तुम में से) कोई यदि जानती हो तो मुझे बतला दे।