গৌড়লেখমালা (প্রথম স্তবক)/প্রথম মহীপালদেবের তাম্রশাসন

আবিষ্কারের পর ঠিকমত পরিষ্কার না করেই এই তাম্রশাসনের ছাপ নেওয়া হয়েছিল, সেই ছাপ থেকেই লোরেঞ্জ় কিল্‌হর্ণ এর পাঠোদ্ধার করেছিলেন। ফলে তাম্রশাসনের তারিখ ও অন্যান্য বহু অংশ পড়া যায় নি। সেই পাঠই এখানে অনুসৃত হয়েছে এবং ফাঁকা জায়গাগুলি অন্যান্য তাম্রশাসনের সংশ্লিষ্ট অংশের পাঠ দিয়ে ভরাট করা হয়েছে (কিছু অংশ আছে যা সব পাল তাম্রশাসনের সাধারণ অংশ)। পরে রাখালদাস বন্দ্যোপাধ্যায় তাম্রশাসনটিকে কলকাতার ভারতীয় জাদুঘরে পরিষ্কার করিয়ে নতুন করে এর পাঠোদ্ধার করেন এবং সেই পাঠ এপিগ্রাফিয়া ইন্ডিকা চতুর্দশ খন্ডে প্রকাশ করেন। তখন জানা যায় যে এটি প্রথম মহীপালের নবম বছরের তাম্রশাসন। দুই পাঠের অন্তরগুলি যথাযোগ্য জায়গায় দেখানো হয়েছে।

প্রথম মহীপালদেবের তাম্রশাসন।

[বাণগড়-লিপি]
প্রশস্তি-পরিচয়।

 দিনাজপুরের অন্তর্গত সুবিখ্যাত বাণগড়ের ধ্বংসাবশেষের মধ্যে, পালবংশীয় [দ্বিতীয় বিগ্রহপালদেবের পুত্র] প্রথম মহীপালদেবের নামাঙ্কিত একখানি তাম্রশাসন আবিষ্কৃত হয়। তাহাআবিষ্কার-কাহিনী। অনেক দিন পর্য্যন্ত নবাব-বাজারের জমীদার নৃসিংহচরণ নন্দী মহাশয়ের নিকট দেখিতে পাওয়া যাইত। পরলোকগত নন্দকৃষ্ণ বসু, এম-এ, মহোদয় দিনাজপুরের কলেক্টর হইয়া আসিলে, তাম্রশাসনখানি তাঁহার হস্তগত হয়। তিনি তাহা কলিকাতায় প্রেরণ করিয়াছিলেন।

 এই শাসন-লিপি যখন নন্দী মহাশয়ের নিকটে দেখিতে পাওয়া যাইত, সেই সময়ে [১৮৮৬ খৃষ্টাব্দে] দিনাজপুরের স্কুল-সমূহের ডেপুটী-ইন্‌স্‌পেক্টর শ্রীযুক্ত গিরিধারী বসু মহাশয় ইহার একটিপাঠোদ্ধার-কাহিনী। ছাপ তুলিয়া লইয়া, এসিয়াটিক্ সোসাইটিতে প্রেরণ করিয়াছিলেন। তৎকালে [দৃষ্টিশক্তির দুর্ব্বলতার জন্য] ডাক্তার রাজেন্দ্রলাল তাহার পাঠোদ্ধারে ব্যাপৃত হইতে অসমর্থ বলিয়া, ডাক্তার হরণ্‌লি কর্ত্তৃক ছাপগুলি অধ্যাপক কিল্‌হর্ণের নিকট প্রেরিত হইয়াছিল। তিনি সোসাইটির পত্রিকায়[১] মূলানুগত পাঠ মুদ্রিত করিবার ছয় বৎসর পরে, [তাম্রশাসনখানি কলিকাতায় প্রেরিত হইলে], প্রাচ্যবিদ্যামহার্ণব শ্রীযুক্ত নগেন্দ্রনাথ বসু মহাশয় সাহিত্য-পরিষৎপত্রিকায়[২] তাহার পাঠ মুদ্রিত করিয়াছিলেন।

 এই তাম্রশাসনের প্রথম পাঁচটি শ্লোক নারায়ণপালদেবের [ভাগলপুরে আবিষ্কৃত] তাম্রশাসনের অনুরূপ। ষষ্ঠ শ্লোকটি ঈষৎ রূপান্তরিত। সপ্তম হইতে দ্বাদশ শ্লোক নূতন বলিয়া,ব্যাখ্যা-কাহিনী। অধ্যাপক কিল্‌হর্ণ তাহারই ব্যাখ্যা লিপিবদ্ধ করিয়াছিলেন। বসু মহাশয়ও আদ্যন্তের অনুবাদ প্রকাশিত করেন নাই। ইহাতে প্রথম মহীপালদেবের রাজ্যলাভের কথা যে ভাবে উল্লিখিত রহিয়াছে, তাহাতে তাহার অভ্যন্তরে নানা ঐতিহাসিক তথ্য প্রচ্ছন্ন রহিয়াছে বলিয়াই বোধ হয়। তাহা একটি ঐতিহাসিক সমস্যা।

 এই তাম্রশাসনখানি ১ ফুট দীর্ঘ, ১ ফুট আড়াই ইঞ্চ প্রস্থ;—শিরোভাগে “ধর্ম্মচক্র” রাজ-মুদ্রা সংযুক্ত; তাহাতে “শ্রীমহীপালদেবস্য”; এবং প্রথম পৃষ্ঠে ৩৪ পংক্তি, অপর পৃষ্ঠে ২৮ পংক্তি সংস্কৃতলিপি-পরিচয়। ভাষা-নিবদ্ধ পদ্যগদ্যাত্মক লিপি উৎকীর্ণ রহিয়াছে। এই তাম্রশাসনের যে স্থানে রাজ্যাব্দ উৎকীর্ণ হইয়াছিল, তাহা কে যেন চাঁছিয়া ফেলিয়াছে। সুতরাং ইহা মহীপালদেবের শাসন-সময়ের কোন্ বৎসরের লিপি, তাহা নির্ণয় করিবার উপায় নাই। প্রথম পৃষ্ঠায় ১৩ পংক্তি পর্য্যন্ত সুখপাঠ্য; তাহার পর আর যাহা কিছু উৎকীর্ণ হইয়াছিল, তাহা কালপ্রভাবে স্থানে স্থানে অস্পষ্ট হইয়া পড়িয়াছে, এবং দুইটি অক্ষর একেবারে বিলুপ্ত হইয়া গিয়াছে। অন্যান্য তাম্রশাসনোক্ত পাঠের সহিত মিল করিয়া, এই তাম্রশাসনের অস্পষ্টাংশের পাঠ উদ্ধৃত হইল। এই শাসন-লিপির গদ্যাংশে বর্ণাশুদ্ধির আতিশয্য। “শ-কারের” বর্ণবিন্যাসেই গোলযোগ কিছু অধিক। বাঙ্গালী হৃষিকেশকে “রিশিকেশ”রূপে উচ্চারণ করিয়া থাকে। ইহাতে সেই বর্ণবিন্যাসই দেদীপ্যমান! যে সকল অস্পষ্টাংশের পাঠ যোজনা করা হইয়াছে, তাহা [] এইরূপ বন্ধনীর মধ্যে; এবং যে সকল বর্ণাশুদ্ধি সংশোধিত হইয়াছে, তাহা () এইরূপ বন্ধনীর মধ্যে প্রদর্শিত হইল।

 ইহার বংশবিবৃতি-সূচক শ্লোকাবলীতে গোপাল, ধর্ম্মপাল, দেবপাল, প্রথম বিগ্রহপাল, নারায়ণপাল, রাজ্যপাল, দ্বিতীয় গোপাল, দ্বিতীয় বিগ্রহপাল এবং তৎপুত্র [প্রথম] মহীপালদেবেরলিপি-বিবরণ। নাম উল্লিখিত আছে। এতদ্বারা পরমসৌগত মহারাজাধিরাজ শ্রীবিগ্রহপালদেব-পাদানুধ্যাত [২৫ পংক্তি] পরমেশ্বর পরমভট্টারক মহারাজাধিরাজ শ্রীমন্মহীপালদেব [৩০ পংক্তি] বিলাসপুর-সমাবাসিত-জয়স্কন্ধাবার হইতে [২৯ পংক্তি] শ্রীপুণ্ড্রবর্দ্ধনভুক্তির অন্তর্গত কোটিবর্ষ-বিষয়ের অধীন গোকলিকা-মণ্ডলান্তঃপাতি কুরটপল্লিকা-গ্রাম [৩০-৩১ পংক্তি] গঙ্গা-স্নানান্তে [৫০ পংক্তি] ভট্টপুত্র-হৃষিকেশ-পৌত্র, ভট্টাপুত্র-মধুসূদনপুত্র, ভট্টপুত্র-কৃষ্ণাদিত্য শর্ম্মাকে বিষুব-সংক্রান্তির শুভ দিনে দান করিয়াছিলেন। ভট্ট শ্রীবামন মন্ত্রী ইহার “দূতক” [৬১ পংক্তি] ছিলেন; পোসলী গ্রামাগত বিজয়াদিত্য(?)পুত্র [৬২ পংক্তি] মহীধর শিল্পি-কর্ত্তৃক এই তাম্রশাসন উৎকীর্ণ হইয়াছিল।


প্রশস্তি-পাঠ।

 ॐ स्वस्ति॥
मैत्रीं कारुण्यरत्न-प्रमुदि-
त-हृदयः प्रेयसीं सन्दधानः
सम्यक् सम्बोधि-वि-
द्या-श(स)रिदमलजल-क्षालिताज्ञानपङ्कः।

जि-
त्वा यः [का]मकारि-प्रभव मभिभवं शाश्वती- 
म्प्राप शान्तिं
स श्रीमान् लोकनाथो जयति द-
शबलोऽन्यश्च गोपालदेवः(১)
लक्ष्मीजन्म-नि-
केतनं समकरो वोढ़ुं क्षमः क्ष्माभरं
पक्षच्छेद-भयादुपस्थितवता मेकाश्रयो भूभृतां।
मर्य्यादा-परिपा-
लनैकनिरतः शौर्य्यालयोऽस्मादभू-
द्दुग्धाम्भोधि-विलास-हासि-महिमा श्रीधर्म्मपालो नृपः॥(২)
रामस्येव
गृहीत-सत्यतपस स्तस्यानुरूपो गुणैः
सौमित्रे रुदपादि तुल्य-महिमा वाक्‌पालनामानुजः।
यः श्रीमान्न-
१० य-विक्रमैक-वसति र्भ्रातुः स्थितः शासने
शून्याः शत्रुपताकिनीभि रकरो देकातपत्रा दिशः॥(৩)
तस्मा-
११ दुपेन्द्रचरितै र्ज्जगतीं पुनानः
पुत्रो बभूव विजयी जयपालनामा।
धर्म्मद्विषां शमयिता युधि देवपाले
यः
१२ पूर्व्वजे भुवनराज्य-सुखान्यनैषीत्॥(৪)
श्रीमान् विग्रहपाल स्तत्सूनु रजातशत्रु रिव जात



शत्रुवनिता-प्रसाध-
१३ न-विलोपि-विमलासि-जलधारः॥(৫)
दिक्‌पालैः क्षितिपालनाय दध[तं देहे]विभक्तान् गुणान्
श्रीमन्तं जन-
१४ याम्बभूव तनयं नारायणं स प्रभुं।
यः क्षोणीपतिभिः शिरो[मणिरुचा-श्लिष्टाङ्घ्रि]-पीठोपलं
न्यायो-
१५ पात्त मलञ्चकार चरितैः स्वैरे[व धर्म्मासनम्]॥(৬)
तोया[श]यै र्ज्जलधि[मूल]-गभीरगर्भै-
र्द्देवालयैश्च
१६ कुलभूधरतुल्य-कक्षैः।
विख्यातकीर्त्ति र[भव]त्तनयश्च तस्य
श्रीराज्यपाल इति मध्यमलोक-पालः॥(৭)
तस्मा-
१७ त् पूर्व्वक्षितिघ्रान्निधि रिव महसां [राष्ट्र]कूटा[न्व]येन्दो-
स्तुङ्गस्योत्तुङ्ग-मौले र्द्दुहितरि तनयो भाग्यदेव्यां प्र-
१८ सूतः।
श्रीमान् गोपालदेव श्चिरतरम[वने रेक]पत्न्या इवैको
भर्त्ताभून्नैक-[रत्नद्यु]ति-खचित-चतुः सिन्धु-
१९ चित्रांशुकायाः॥(৮)
यं स्वामिनं राजगुणै रनून मासेवते चा[रुतरा]नुरक्ता।
उत्साह-मन्त्र-प्रभुशक्ति-लक्ष्मीः पृथ्वीं स-
२० पत्नीमिव शीलयन्ती॥(৯)



तस्माद्बभूव सवितु[र्व्वसुकोटिवर्षी
काले]न चन्द्र इव विग्रहपालदेवः
नेत्र-प्रिये
२१ ण विमलेन कलामयेन
येनोदितेन दलितो [भुवन]स्य तापः॥(১০)
[देशे प्राचि] प्रचुर-पयसि खच्छ मापीय तो-
२२ यं
स्वैरं भ्रान्त्वा तदनुमलयोपत्यका-चन्दनेषु[।]
कृत्वा[सान्द्रैस्तरुषु जड़तां] शीकरै रभ्रतुल्याः
प्रालेया[द्रे-]
२३ ः कटक मभजन् यस्य सेना-गजेन्द्राः॥(১১)
हतस[कल]विपक्षः सङ्गरे [बाहु]दर्पा-
दनधिकृत-विलुप्तं राज्य मा-
२४ साद्य पित्र्यं।
निहित-चरणपद्मो भूभृतां मूर्द्ध्नि तस्मा-
दभ[वदवनि]पालः श्रीमहीपालदेवः(১২)

स ख-
२५  लु भागीरथीपथ-प्रवर्त्तमान-[नानाविध]-नौ[वा]टक-सम्पादित-सेतुबन्ध-निहित-सै-(शै)ल-सि(शि)खरश्रेणी-विभ्रमा-
२६ त्। निरतिशय-घन-घनाघन-घटा-श्यामायमान-वासर[लक्ष्मी]-समारब्ध-सन्तत-जलदसमय-सन्देहात्।
२७ उदीचीनानेकनरपति-प्राभृतीकृता-[प्र]मेय-हयवाहिनी खरखुरोत्खात-धूलीधूसरित-दिगन्तरा-
२८ लात्। परमेश्वर-सेवा-समायाता-शेष-जम्बूद्वीप-भूपालानन्तपादात-भर-नमदवनेः। वि[ला]स पुर[৩]-समा-
२९ वासित-श्रीमज्जयस्कन्धावारात्। परमसौगतो महाराजाधिराज-श्रीविग्रहपालदेव-पादानुध्यातः पर-
३० मेश्वरः परमभट्टारको महाराजाधिराजः श्रीमान्महीपालदेवः कुशली। श्रीपुण्ड्रवर्द्धनभुक्तौ। कोटीव-
३१ र्षविषये। गोकलिका-मण्डलान्तःपाति-स्वसम्ब[न्धाव]च्छिन्न[৪] तलोपेत-चूटपल्लिकावर्ज्जित-कुरटपल्लि-
३२ का-ग्रामे। समुपगताशेष-राजपुरुषान्। राजराजन्यक। राजपुत्र। राजामात्य। महासान्धिविग्रहि-
३३ क। महाक्षपटलिक। महाम[न्त्रि]। महासेनापति। महाप्रतिहार। दौःसाधसाधनिक। महा[द]ण्डना-
३४ [यक]। महाकुमारामत्य। राजस्थानीयोपरिक। दाशापराधिक। चौरोद्धरणिक। दाण्डि[क]। [दा]ण्डपा-
३५ [शि]क। सौ(शौ)ल्किक। गौल्मिक। क्षेत्रप। प्रा-
३६ न्तपाल। कोट्टपाल। अङ्गरक्ष। तदायु-
३७ क्त-विनियुक्तक। हस्त्यश्वोष्ट्र-नौबल-व्या-
३८ पृतक। किशोरवड़वा-गोमहिषाजावि-
३९ काध्यक्ष[৫]। दूतप्रेषणिक। गमागमिक।
४० अभित्वरमाण। विषयपति। ग्रामपति। [तरि]क। गौड़। मालव। खस। हूण। कुलिक। कर्णाट। ला[ट।]
४१ चाट। भट। सेवकादीन् [।] अन्यां श्चाकीर्त्तितान् राजपादोपजीविनः प्रतिवासिनो ब्राह्मणोत्तरांश्च। महत्त-
४२ मोत्तम-कुटुम्बि-पुरोगमेदान्ध्र-चण्डाल-पर्य्यन्तान्। यथार्हं मानयति बोधयति। समादिशति विदित-

४३ मस्तु भवतां। यथोपरि-लिखितोऽयं ग्रामः स्वसीमा-तृणयूति-गोचरपर्य्यन्त-सतलः। सोद्देशः साम्रम-
४४ धूकः। सजलस्थलः। सगर्त्तोषरः। सदशापराधः। सचौरोद्धरणः। परिहृत-सर्व्वपीड़ः। अचाट-
४५ भटप्रवेशः। अकि[ञ्चिद्‌ग्राह्यः][৬] समस्तभाग-भोग करहिरण्यादि-प्रत्याय-समेतः।[৭] भूमिच्छिद्र-न्या-
४६ येन। आचन्द्रार्क-क्षिति-समकालम्। मातापित्रो रात्मनश्च पुण्ययसो(शो)-भिवृद्धये। भगवन्तं बुद्धभट्टार-
४७ क मुद्दिश्य। परास(श)र-सगोत्राय। शक्ति। वशिष्ठ। परासर-प्रवराय। [यजु र्व्वे]द-सब्रह्मचारिणे। वाज-
४८ ٭ ٭ -शाखाध्यायिने। मीमांसा-व्याकरण-तर्क्कविद्याविदे। हस्तिपद-ग्रामविनिर्ग्गताय। चवटिग्राम-वास्तव्या-
४९ य। भट्टपुत्र-रि(हृ)षिकेश-पौत्राय। भट्टपुत्र-मधुशू(सू)दन-पुत्राय। मट्टपुत्र-[कृष्णादि]त्य-स(श)र्म्मणे विशु(षु)व-संक्रा-
५० न्तौ विधिवत्। गङ्गायां स्नात्वा शासनीकृत्य प्रदत्तोऽस्माभिः। अतो भवद्भिः सर्व्वै रेवानुमन्तव्य-
५१ म्। भाविभि रपि भूपतिभिः। भूमे र्द्दानफल-गौरवात्। अपहरणे च महानरक-पात-भयात्।
५२ दानमिद मनुमोद्यानुपालनीयम्। प्रतिवासिभिश्च क्षेत्रकरैः। आज्ञाश्रवण-विधेयीभूय यथाकालं
५३ समुचित-भाग-भोग-कर-हिरण्यादि-प्रत्यायोपनयः कार्य्य इति॥
सम्वत् ... दिने भवन्ति चात्र
५४ धर्म्मानुशंसिनः श्लोकाः।

वहुभि र्व्वसुधा दत्ता राजभिस् सगरादिभिः।



यस्य यस्य यदा भूमि स्तस्य तस्य
५५ तदा फलम्॥(১৩)
भूमिं यः प्रतिगृह्णाति यश्च भूमिं प्रयच्छति।
उभौ तौ पुण्यकर्म्माणी नियतं स्वर्ग्गगामिनौ॥(১৪)
५६ गामेकां स्व[र्ण्ण]मेक[ञ्च] भूमेरप्यर्द्ध मङ्गुलम्।
हरन्नरकम(मा)याति यावदाहूत-संप्लवम्॥(১৫)
षष्टिं-वर्ष सहस्रा-
५७ णि स्वर्ग्गे मोदति भूमिदः।
आक्षेप्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके वसेत्॥(১৬)
स्वदत्ता म्परदत्तां वा यो हरेत
५८ वसुन्धराम्।
स विष्ठायां क्रि(कृ)मि र्भूत्वा पितृभिः सह पच्यते॥(১৭)
सर्व्वानेतान् भाविनः पार्थिवेन्द्रान्
भूयो भू-
५९ यः प्रार्थयत्येष रामः।
सामान्योऽयं धर्म्मसेतु र्न्नृपाणां
काले काले पालनीयो भवद्भिः॥(১৮)
इति कमलद-
६० लाम्बु-विन्दुलोलां
श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितञ्च।
सकल मिदमुदाहृतञ्च बुद्ध्वा
नहि पुरुषैः परकीर्त्त-
६१ यो विलोप्याः॥(১৯)
श्रीमहीपालदेवेन [द्विजश्रेष्ठोप]पादिते।

भ[ट्ट] श्रीवामनो मन्त्री शासने दूतकः कृतः॥(২০)
६२ [पोस]ली[৮]-ग्राम-निर्यात-[विजया]दित्य[৯]-[सूनुना]।
इदं शासन मुत्कीर्णं श्रीमहीधर-शिल्पिना॥(২১)


বঙ্গানুবাদ।

(৭)

 [সেই নারায়ণপালদেবের] শ্রীরাজ্যপাল নামক ভূলোক-পালক পুত্র জন্মগ্রহণ করিয়াছিলেন। তিনি অগাধ-জলধিমূলতুল্য-গভীরগর্ভ-সংযুক্ত জলাশয়ের এবং কুলাচল-তুল্য সমুচ্চকক্ষ-সংযুক্ত দেবালয়ের প্রতিষ্ঠা করিয়া,[১০] খ্যাতিলাভ করিয়াছিলেন।

(৮)

 তাঁহার [ঔরসে] এবং রাষ্ট্রকূটকুলচন্দ্র উত্তুঙ্গ-মৌলি তুঙ্গদেবের[১১] দুহিতা ভাগ্যদেবীর [গর্ভে] পূর্ব্বাচলোদিত তপনতুল্য গোপালদেব জন্মগ্রহণ করিয়াছিলেন। তিনি অনেকরত্ন-দ্যুতিখচিত-চতুঃসিন্ধু-বস্ত্রবিভূষিতা অনন্যানুরক্তা বসুন্ধরার একমাত্র ভর্ত্তা হইয়া, দীর্ঘকাল রাজ্যভোগ করিয়াছিলেন।

(৯)

 উৎসাহশক্তি-মন্ত্রশক্তি-প্রভুশক্তিসম্পন্না[১২] রাজলক্ষ্মী, সুশীলার ন্যায়, বসুন্ধরা-সপত্নীর মনোরঞ্জন করিয়া, চারুতরানুরাগে সেই রাজগুণ-বিভূষিত স্বামীর সেবা করিয়াছিলেন।

(১০)

 সূর্য্যদেব হইতে যেমন কিরণকোটি-বর্ষী চন্দ্রদেব উৎপন্ন হইয়াছেন,[১৩] তাঁহা হইতেও সেইরূপ রত্নকোটি-বর্ষী বিগ্রহপালদেব জন্মগ্রহণ করিয়াছিলেন। নয়নানন্দ-দায়ক সুবিমল কলাময় সেই রাজকুমারের উদয়ে ত্রিভুবনের সন্তাপ বিদূরিত হইয়া গিয়াছিল।

(১১)

 তদীয় অভ্রতুল্য সেনা-গজেন্দ্রগণ [প্রথমে] জলপ্রচুর পূর্ব্বাঞ্চলে স্বচ্ছ সলিল পান করিয়া, তাহার পর [তদনু] মলয়োপত্যকার চন্দন-বনে যথেচ্ছ বিচরণ করিয়া, ঘনীভূত-শীতল-শীকরোৎক্ষেপে[১৪] তরুসমূহের জড়তা সম্পাদন করিয়া, হিমালয়ের কটকদেশ উপভোগ করিয়াছিল।

(১২)

 তাঁহার পুত্র শ্রীমহীপালদেব রণক্ষেত্রে বাহুদর্প-প্রকাশে সকল বিপক্ষপক্ষ নিহত করিয়া, “অনধিকৃত-বিলুপ্ত”[১৫] পিতৃরাজ্যের উদ্ধারসাধন করিয়া, রাজগণের মস্তকে চরণপদ্ম সংস্থাপিত করিয়া, অবনিপাল হইয়াছিলেন।


মূলপাঠের পদ্যাংশের টীকা সম্পাদনা

^(১)  স্রগ্ধরা। প্রথম পংক্তিতে “মৈত্রীঙ্কারুণ্যরত্ন” এইরূপ বর্ণবিন্যাস আছে।

^(২-৩)  শার্দ্দূল-বিক্রীড়িত।

^(৪)  বসন্ত-তিলক।

^(৫)  আর্য্যা।

^(৬)  শার্দ্দূল-বিক্রীড়িত।

^(৭)  বসন্ততিলক।

^(৮)  স্রগ্ধরা। সাহিত্যপরিষৎ-পত্রিকায় “চিত্রাঙ্গকায়া” পাঠ মুদ্রিত হইয়াছে।

^(৯)  ইন্দ্রবজ্রা।

^(১০)  বসন্ততিলক। এই শ্লোকের “বসুকোটিবর্ষী”-পদটি অধ্যাপক কিল্‌হর্ণ কর্ত্তৃক “বসুকোটিবর্ধী” বলিয়া পঠিত হইয়াছে। “নেত্রপ্রিয়েণ”-শব্দটিও তৎকর্ত্তৃক “বিশ্বপ্রিয়েণ” বলিয়া [কিঞ্চিৎ সংশয় সহকারে] উদ্ধৃত হইয়াছে। মদনপালদেবের তাম্রশাসনে “নেত্রপ্রিয়েণ” পাঠ স্পষ্টাক্ষরে উৎকীর্ণ থাকায়, সেই পাঠই গৃহীত হইল।

^(১১)  মন্দাক্রান্তা।

^(১২)  মালিনী।

^(১৩-১৫)  অনুষ্ঠুভ্।

^(১৬-১৭)  অনুষ্ঠুভ্।

^(১৮)  শালিনী।

^(১৯)  পুষ্পিতাগ্রা।

^(২০-২১)  অনুষ্ঠুভ্।

অন্যান্য অংশের টীকা সম্পাদনা

  1. J. A. S. B. Vol. LXI. pp. 77-87.
  2. ১৩০৫ সালের তৃতীয় সংখ্যার ১৬৭-১৭২ পৃষ্ঠা।
  3. বিলাসপুর-শব্দের লা-অক্ষরটি সংশয়পূর্ণ।
  4. অধ্যাপক কিল্‌হর্ণ “सम्बन्धाविच्छिन्न” পাঠ গ্রহণ করিয়াছেন।
  5. অধ্যাপক কিল্‌হর্ণ “गोमहिष्यजाविकाध्यक्ष” পাঠ উদ্ধৃত করিয়াছেন।
  6. অধ্যাপক কিল্‌হর্ণ “अकिञ्चितग्राहः” পাঠ গ্রহণ করিয়াছেন। ভাগলপুর-লিপিতে এবং আমগাছি-লিপিতে “অকিঞ্চিৎপ্রগ্রাহ্যঃ”-পাঠ দেখিতে পাওয়া যায়। (উইকিসংকলন টীকা: রাখালদাস বন্দ্যোপাধ্যায়ের পাঠেও অকিঞ্চিদ্‌গ্রাহঃ আছে।)
  7. অধ্যাপক কিল্‌হর্ণ “प्रव्याय” পাঠ উদ্ধৃত করিয়াছেন।
  8. পোসলী-গ্রামের নাম আমগাছি-লিপিতেও উৎকীর্ণ রহিয়াছে।
  9. বিজয়-নামটি অস্পষ্ট এবং অনুমান-মূলক।
  10. বরেন্দ্র-মণ্ডলে এরূপ অনেক জলাশয় এবং দেবমন্দিরের ধ্বংসাবশেষ দেখিতে পাওয়া যায়। যাহার সহিত কাহারও নামের সম্পর্ক নাই, সেগুলি কোন্ সময়ের কাহার কীর্ত্তি বিঘোষিত করিত, এখনও তাহার যথাযোগ্য অনুসন্ধান আরব্ধ হয় নাই।
  11. ১৮৯২ খৃষ্টাব্দে [এই তাম্রশাসনের সমালোচনায়] অধ্যাপক কিল্‌হর্ণ (Indian Antiquary, Vol. XXI, p. 98) লিখিয়া গিয়াছেন,—“The words bhágyadevi and tunga of the original text need not, perhaps, necessarily be taken as proper names.” কিন্তু সেই বৎসরেই, মহীপালদেবের [বাণগড়ে আবিষ্কৃত] তাম্রশাসনের সমালোচনায়, অধ্যাপক কিল্‌হর্ণ (J. A. S. B. Vol. LXI, p. 80) লিখিয়া গিয়াছেন,—“undoubtedly the writer, by the words tungasyottungamauleh means to suggest the name of the Ráshtrakuta-king spoken of; or he may even have used tunga as a proper name for Jagatunga. I understand the king referred to be the Ráshtrakuta Jagatunga II, who must have ruled in the beginning of the 10th “century.” এই শ্লোকের “তুঙ্গ”-শব্দ রাজার নামই ব্যক্ত করিতেছে; অন্যথা অর্থসঙ্গতি রক্ষিত হইতে পারে না।
  12. রাজশক্তি ত্রিবিধ,—উৎসাহশক্তি, মন্ত্রশক্তি এবং প্রভুশক্তি। অমরকোষে [২।৮।১৯] তাহা উল্লিখিত আছে। তাহার ব্যাখ্যায় টীকাকার ভানুজীদীক্ষিত লিখিয়া গিয়াছেন,—

    “कोषदण्डबलं प्रभुशक्तिः।
    विक्रमबल मुत्साहशक्तिः।
    सन्ध्यादीनां सामादीनाञ्च यथावत् स्थापनं मन्त्रशक्तिः।”

  13. মহীপালদেবের পিতার কোনরূপ বীরকীর্ত্তির উল্লেখ নাই। তাঁহাকে সূর্য্য হইতে “চন্দ্র”রূপে উদ্ভূত বলিয়া, এবং তজ্জন্য তাঁহাতে “কলাময়”ত্বের আরোপ করিবার সুযোগ পাইয়া, কবি ইঙ্গিতে তাঁহার ভাগ্য-বিপর্য্যয়ের আভাস প্রদান করিয়া থাকিবেন। পরশ্লোকে তাঁহার সেনাগজেন্দ্রগণের [আশ্রয়স্থানাভাবে] নানাস্থানে পরিভ্রমণ করিয়া, শিশির-সংক্ষুব্ধ হিমাচলের অধিত্যকায় আশ্রয়লাভের কথায়, এবং তৎপরবর্ত্তী শ্লোকে মহীপালদেবের “অনধিকৃত-বিলুপ্ত” পিতৃরাজ্য পুনঃ প্রাপ্তির কথায়, দ্বিতীয় বিগ্রহপালদেবের শাসন-সময়েই পাল-সাম্রাজ্যের প্রথম ভাগ্য-বিপর্য্যয়ের পরিচয় প্রাপ্ত হওয়া যাইতে পারে।
  14. অধ্যাপক কিল্‌হর্ণ ভাবার্থের ব্যাখ্যা করিবার জন্য [পাদটীকায়] লিখিয়া গিয়াছেন,—“with the water emitted from their trunks.” “গৌড়ের ইতিহাসে” [১২১ পৃষ্ঠায়] এই শ্লোকটি মহীপালের দিগ্বিজয়-বিজ্ঞাপক বলিয়া উল্লিখিত! ইহাতে বরং মহীপালের [রাজ্যভ্রষ্ট] পিতার নানাস্থানে আশ্রয়লাভের চেষ্টাই সূচিত হইয়াছে বলিয়া বোধ হয়।
  15. “অনধিকৃত-বিলুপ্ত”-বিশেষণপদের ব্যাখ্যা করিতে গিয়া, প্রাচ্যবিদ্যা-মহার্ণব শ্রীযুক্ত নগেন্দ্রনাথ বসু [সাহিত্য-পরিষৎ-পত্রিকায় এবং বিশ্বকোষে] “অনধিকৃত ও বিলুপ্তরাজ্য” বলিয়া ব্যাখ্যা করিয়াছেন। এই ব্যাখ্যাই “গৌড়ের ইতিহাসে” [১২১ পৃষ্ঠায়] গৃহীত হইয়াছে। এখানে “অনধিকৃত”-শব্দে অনধিকারীকেই বুঝিতে হইবে। অমরকোষে [২।৮।৬] সেইরূপ অর্থই লিখিত আছে। [বসু মহাশয়ের ব্যাখ্যা সম্পাদিত হইবার বহু পূর্ব্বে] অধ্যাপক কিল্‌হর্ণও, এই শ্লোকের ব্যাখ্যায়, সেই সুপরিচিত অর্থের অনুসরণ করিয়া, লিখিয়া গিয়াছেন,—“having obtained his father’s kingdom, which had been snatched away by people, who had no claim to it.” মহীপালদেবের পিতার রাজ্য অথবা [পিত্র্যং রাজ্যং] “বরেন্দ্রভূমি” যে অনধিকারিগণের আক্রমণে একবার হস্তচ্যুত হইয়া, পুনরায় অধিকৃত হইয়াছিল, ইহাতে সেই ঐতিহাসিক তথ্য সুব্যক্ত হইয়া রহিয়াছে। কিন্তু এই শ্লোকের “অনধিকারী”-শব্দে কাহাকে বুঝিতে হইবে, তৎকালে তাহা সুপরিচিত থাকায়, কবি তাহার কোনরূপ আভাস প্রদান করেন নাই। বরেন্দ্রভূমিতে তাহার পরিচয়সূচক প্রমাণ অদ্যাপি সম্পূর্ণরূপে বিলুপ্ত হয় নাই। তাহার বিস্তৃত বিবরণ “গৌড়রাজমালায়” দ্রষ্টব্য।