গৌড়লেখমালা (প্রথম স্তবক)/বৈদ্যদেবের তাম্রশাসন

বৈদ্যদেবের তাম্রশাসন।

[কমৌলি-লিপি]
প্রশস্তি-পরিচয়।

 ১৮৯২ খৃষ্টাব্দের অক্টোবর মাসে বারাণসী-ধামের গঙ্গা-বরণা-সঙ্গমস্থলের নিকটবর্ত্তী কমৌলি গ্রামে হলকর্ষণোপলক্ষে ২৫ খানি তাম্রশাসন আবিষ্কৃত হয়। বারাণসীর ম্যাজিষ্ট্রেট ব্রেরেটন্আবিষ্কার-কাহিনী। সাহেব এই সকল তাম্রশাসন প্রাপ্ত হইয়া, কোন কোন শাসনলিপির পরীক্ষা করাইবার জন্য, বারাণসী কলেজের অধ্যক্ষ সুপণ্ডিত ভিনিস্ সাহেবের নিকট প্রেরণ করায়, বৈদ্যদেবের তাম্রশাসন সুধীসমাজে সুপরিচিত হইবার সূত্রপাত হয়। ইহা কমৌলি গ্রামে আবিষ্কৃত হইয়াছিল বলিয়া, “কমৌলি-লিপি” নামে পরিচিত হইয়াছে।

 ভিনিস্ সাহেব এই তাম্রশাসনের পাঠোদ্ধারে ব্যাপৃত হইয়া, প্রতিকৃতি ও অনুবাদ সহ একটি পাঠ ভারতীয় লেখমালায় [Epigraphia Indica Vol. II] মুদ্রিত করিয়াছেন। তাঁহারপাঠোদ্ধার-কাহিনী। উদ্ধৃত পাঠই মূলানুগত পাঠ বলিয়া পরিচিত। যে প্রতিকৃতি প্রকাশিত হইয়াছে, তাহা অতি সুন্দর। তদবলম্বনে উদ্ধৃত পাঠের পরীক্ষা করিবার অসুবিধা নাই। এই তাম্রশাসন ও কমৌলি গ্রামে প্রাপ্ত অন্যান্য তাম্রশাসন ১৮৯৩ খৃষ্টাব্দের জুলাই মাসে লক্ষ্ণৌ-যাদুঘরে প্রেরিত হইয়াছে।

 পাঠোদ্ধার করিবার পর, ভিনিস্ সাহেবই ব্যাখ্যাকার্য্যে হস্তক্ষেপ করিয়াছিলেন। তাঁহার ব্যাখ্যা অধিকাংশ স্থলে মূলানুগত হইলেও, কোন কোন স্থলে মূলানুগত হইতে পারে নাই।ব্যাখ্যা-কাহিনী। তিনি অশেষ অধ্যবসায়বলে পাল-রাজবংশের কালনির্ণয়ের চেষ্টায় যে প্রবন্ধ প্রকাশিত করিয়াছেন, তাহার সকল অংশও বিচারসহ হইতে পারে নাই। বৈদ্যদেবের তাম্রশাসন কমৌলি গ্রামে আবিষ্কৃত হইলেও, তাহার সহিত আমাদের দেশের সম্পর্কই অধিক। সুতরাং তাহা লেখমালায় সন্নিবিষ্ট হইল।

  / × ৭ ইঞ্চ আয়তনের তিন খানি তাম্রফলকে এই শাসনলিপি সংস্কৃত ভাষানিবদ্ধ পদ্যে ও গদ্যে উৎকীর্ণ রহিয়াছে। ফলক তিন খানি একটি চমসের ন্যায় পদার্থ সংবদ্ধ, তাহাতে গণপতিরলিপি-পরিচয়। মূর্ত্তি অঙ্কিত আছে। প্রথম ফলকের এক পৃষ্ঠে এবং দ্বিতীয় ও তৃতীয় ফলকের উভয় পৃষ্ঠে লিপি উৎকীর্ণ রহিয়াছে। অক্ষরগুলি কোনও স্থলেই বিলুপ্ত হয় নাই, সুতরাং পাঠোদ্ধারে অসুবিধা ঘটিবার আশঙ্কা নাই। প্রত্যেক অক্ষর প্রায় / ইঞ্চ; তাহা দেওপাড়া-প্রস্তরলিপির অক্ষরের অনুরূপ। তাম্রশাসনে রাজমুদ্রা সংযুক্ত করিবার যে শাস্ত্র-শাসন দেখিতে পাওয়া যায়, তদনুসারে গণপতি-মূর্ত্তিকেই রাজমুদ্রারূপে গ্রহণ করিতে হইবে।

 এই তাম্রশাসন সম্পাদিত করাইয়া, হংসাকোঞ্চী-সমাবাসিত শ্রীমজ্জয়স্কন্ধাবার হইতে [৪৭ পংক্তি] পরমমাহেশ্বর-পরমবৈষ্ণব-মহারাজাধিরাজ পরমেশ্বর-পরমভট্টারক শ্রীমান্ বৈদ্যদেবলিপি-বিবরণ। [৪৭-৪৮ পংক্তি] তদীয় বিজয়-রাজ্যের চতুর্থ বৎসরে [৫৩ পংক্তি] শ্রীপ্রাগ্‌জ্যোতিষপুর-ভুক্তির অন্তর্গত কামরূপ-মণ্ডলে [৪৮-৪৯ পংক্তি] বরেন্দ্র-নিবাসী সোমনাথ নামক ব্রাহ্মণকে [৩৭-৪৬ পংক্তি] ভূমিদান করিয়াছিলেন। শ্রীধর ধর্ম্মাধিকার ছিলেন [৬৮ পংক্তি], গোনন্দ কবির অনুরোধে বৈদ্যদেব এই শাসন-ভূমি দান করিয়াছিলেন, এবং কর্ণভদ্র নামক শিল্পী [৬৯ পংক্তি] এই শাসনলিপি উৎকীর্ণ করিয়াছিলেন। এই শাসন-লিপিতে [প্রসঙ্গক্রমে] অনেক ঐতিহাসিক তথ্য বিবৃত হইয়াছিল। মহামহোপাধ্যায় পণ্ডিতবর শ্রীযুক্ত হরপ্রসাদ শাস্ত্রী এম-এ মহোদয়ের প্রশংসনীয় উদ্যমে, নেপাল হইতে গৌড়কবি-সন্ধ্যাকরনন্দী-বিরচিত “রামচরিত” নামক কাব্য আনীত হইয়া, [এসিয়াটিক্ সোসাইটীর যত্নে] মুদ্রিত হইবার পর, তাহার সাহায্যে এই তাম্রশাসনোক্ত চতুর্থ শ্লোকের ঐতিহাসিক বৃত্তান্ত বোধগম্য হইয়াছে।


প্রশস্তি-পাঠ।

[প্রথম ফলক]

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
 स्वस्ति॥
अम्बर-मानस्तम्भः कुम्भः संसारबीज-रक्षायाः।
हरिदन्तर-
मित-मूर्त्तिः क्रीड़ा-पोत्री हरि र्ज्जयति॥(১)
एतस्य दक्षिणदृशो वंशे मिहिरस्य जातवान् पूर्व्वं।
विग्रहपा-
लो नृपतिः सर्व्वाकारर्द्धि-संसिद्धः॥(২)
यस्य वंशक्रमेणाभूत् सचिवः शास्त्रवित्तमः।
योगदेव इति ख्यातः
स्फुरद्दोर्द्दण्ड-विक्रमः॥(৩)

तस्योर्ज्जस्वल-पौरुषस्य नृपतेः श्रीरामपालोऽभवत्।
पुत्रः पालकुलाब्धि-शी-
तकिरणः साम्राज्य-विख्यातिभाक्।
तेने येन जगत्त्रये जनकभू-लाभाद् यथावद्यशः
क्षोणी-नायक-भीम-
रावण-वधाद्युद्धार्ण्णवोल्लंघनात्॥(৪)
यस्य शुद्धसचिवः पुरा भवद्बोधिदेव इति तत्वबोधभूः।
विश्वगेव वि-
दितोऽद्भुतै र्ग्गुणै रुज्झितात्मसदृशः क्षितावयं॥(৫)
अस्य प्रतापदेवी पत्नी धर्म्मद्धि-कीर्त्ति-विश्रान्तिः
आसीदसीम-कान्तिः सन्तोषस्याकृतिः पत्युः॥(৬)
अभूदमुष्यान्तनयोऽस्य विश्रुतः
श्रीवैद्यदेवः परया श्रिया युतः।
यदुच्छलत्-कीर्त्ति श(स)रो वरोद[रे]
पद्माङ्कुराभः शिव-भूधरो
१० भवत्॥(৭)
दैवज्ञेषु च तर्क्ककेषु च जनुर्द्दिष्टस्य दिष्टि‑श्रुते-
रन्न-स्वप्न-धृती र्ज्झटित्यरि-भटै रुन्मु-
११ च्य संमूर्च्छितं।
किञ्चैतन्निज-बन्धुवृन्द-नयन-प्रोद्भूत-हर्षाम्बुभिः
पारक्य-प्रसर-प्रताप-दहनस्याभूद्विनि-
१२ र्व्वापणं॥(৮)

सोयं राम-नरेन्द्रजस्य सचिवः साम्राज्य-लक्ष्मीजुषः
प्रख्यातस्य कुमारपालनृपते-
१३ श्चित्तानुरूपोऽभवत्।
यस्याराति-किरीट-हाटक-कृत-प्रासाद-कण्ठीरव-
ग्रास-त्रास-वशा दपैष्यति
१४ विधो र्ब्बिम्बाङ्करूपी मृगः॥(৯)
सचिवसमाज-श(स)रोज-तिग्मभानुः
प्रसर यशोऽम्बुधि रेष वैद्यदेवः।
स-
१५ हज-वदान्यतयैव चम्पकेशः
सुजन-मनः-कुमुदेषु शीतरस्मि(श्मि)ः॥(১০)
यस्यानुत्तर-वङ्ग-सङ्गरजये नौवाट-
१६ हीहीरव-
त्रस्तै र्द्दिक्करिभिश्च यन्नचलितं चेन्नास्ति तद्गम्यभूः।
किञ्चोत्पातुक-केनिपात-पतन-प्रोत्सर्पितैः

[দ্বিতীয় ফলক]


१७ शीकरै-
राकाशे स्थिरता कृता यदि भवेत् स्यान्निष्कलङ्कः शशी॥(১১)
गौड़ेशस्य कुमारपालनृपते-
१८ र्द्दोर्व्वीर्य्य-तेजस्पतेः
त्रैलोक्योदर-पूरि-भूरियशसः प्रज्ञान-वाचस्पतेः।
सप्ताङ्ग-क्षितिपाधिपत्व मभितः
१९ संचिन्तयन्नुग्रधीः
प्राणेभ्यो प्यतिबन्धुरस्य सचिवः सोऽभूद्गुणि-ग्रामणीः॥(১২)

एतादृशे(शो) हरि-हरिद्भुवि स-
२० त् कृतस्य
श्रीतिम्ग्य-देव-नृपते र्व्विकृतिं निशम्य।
गौड़ेश्वरेण भुवि तस्य नरेश्वरत्वे
श्रीवैद्यदेव उरुकीर्त्ति-
२१ रयं नियुक्तः॥(১৩)
स्रजमिव शिरस्यादायाज्ञां प्रभोरुर(रु)तेजसः
कतिपय-दिनै र्द्दत्वा जिष्णुः प्रयाण मसौ
२२ द्रुतं।
तमवनिपतिं जित्वा युद्धे बभूव महीपति-
र्न्निजभुज परिष्प(स्प)न्दैः साक्षाद्दिवस्पति-विक्रमः॥(১৪)
ए-
२३ तस्य प्रवर-प्रयाण-समये पांशूत्करैः स्थण्डिल-
प्राये व्योमतले र्क्क-सप्तिकगणै-
२४ र्लब्धोऽङ्घ्रि-यानश्रमः।
किञ्चाक्षिद्वय-गोपनेन करयो रन्यक्रियास्वक्षमः
सुत्रामा नय-
२५ ना-निमीलनकरं कर्म्म स्वकं निन्दति॥(১৫)
दोर्द्दण्डारणिजे हवि-र्भुजि भटव्रातेन्धनै रेधिते
२६ संग्रामाध्वर-पूजिते रिपुशिरः-श्रेणीलसत्-श्रीफलैः।
कृत्वा होमविधिं पर-क्षिति भु-
२७ जा दत्वाथ पूर्णाहुतिं
लब्धोदग्रयशो-महत्-फल मसौ श्रीवैद्यदेवो बभौ॥(১৬)
यदुरु-समरमध्यात् खड़्गघातो-
२८ त्पतद्भिः



पर-सुभट-शिरोभि र्व्योम कीर्ण्णं निरीक्ष्य।
झटिति विसर-राहु-व्यूहधी-बिभ्यदर्क्कः
स्व-
२९ रुच मपि रजोभिः प्रोच्छ्यन् स्वं जुगोप॥(১৭)
चन्द्रस्योद्भवभू र्महीध्रस(श)रणं सत्वप्रधानाशयः
पा-
३० त्रश्री-महितः स्फुरद्रसमयः सोयं गभीरः परः।
रत्नानां निलयः श्रियः कुलगृहं स्वान्तस्थित-
३१ श्रीपतिः
स्यादेवं सदृशोऽम्बुधे र्य्यदि जलाधारोऽथवा लंघितः॥(১৮)
ज्ञानै र्गीष्पति रूर्जितै र्द्दिनपतिः
३२ सत्पौरुषैः श्रीपति-
र्द्धैर्य्यै रम्बुपति र्द्धनै र्द्धनपति र्द्दानैः स चम्पापतिः।
किञ्चैतेपि गिरोपमान-विषयाः
३३ प्रायः प्रसिद्धे र्ब्बलाद्
ब्रुमः किन्तु वयं स्वयं स्वसदृशः सर्व्वै र्ग्गुणानां गणैः॥(১৯)
यस्य श्रीबुधदेव इत्यनुजभूः
३४ श्रीरामभद्रानुज-
प्राय स्तत(त्त)दसीम-निर्म्मलगुणै र्द्ध(र्ध)र्म्मर्द्धि-शीलर्द्धिभूः।
दानैः सत्फल-पल्लवै र्द्विज-
३५ कुल-प्रीति-प्रदानै रपि
ख्यातः कल्पमहीरूह-प्रतिकृति र्द्दोर्व्वीर्य्य-चञ्चद्यशाः॥(২০)

अथाभ-
३६ वत् कौषि(शि)क-संज्ञको मुनि-
र्म्मुनीन्द्रमुख्यो निजगोत्र-पूरुषः।
पयोज-जन्मास्यचय-भ्रम-श्रमात्
३७ यदास्य-पद्मेषु सुखं गिरा स्थितं॥(২১)
एतद्वंशे महति भरतः प्रादुरासीत् द्विजाति-
र्भाव-ग्रामे
३८ प्रविसरयसाः(शाः) शासनोग्रे वरेन्द्र्यां।
अ(आ)स्तामन्यद्गुणगण-समाख्यान-माख्यान-मात्राद्
यन्नाम्नोऽ
३९ पि स्फुटति निखिलः किर्न्नि(ल्वि)षाणां प्रपञ्चः॥(২২)
अस्य विप्र-तिलको युधिष्ठिरः।
पुत्र इ-
४० त्यभवत् सुधीश्वरः।
शास्त्रवेद-परिशुद्ध-बोधभूः
श्रोत्रियत्व-विलसद्-यशोनिधिः॥(২৩)
पाइ(ई)-
४१ ति धर्म्मपत्नी धीरवरस्यास्य चित्त-विश्रान्तिः।
अ(आ)सीदसीम-कान्तिः शीलौदार्यश्री(श्रि)यां
४२ वसतिः॥(২৪)
पूर्व्व-पूर्व्वजनु र्ज्जन्म-कर्म्मपाकादभूत् सुत-
स्तस्यैतस्यां द्विजाधीस(श)-पूज्यः श्रीश्रीध
४३ रः परः॥(২৫)



तीर्थेषु भ्रमणात् श्रुताध्ययनतो दानात्तथाध्यापनाद्-
यज्ञानां करणाद् व्रतैकचरणात् सर्व्वो-
४४ त्तरः श्रोत्रियः।
प्रातर्न्नक्त मयाचितोपवसनै र्य्येन स्वयं गुग्गुलो-
राकर्षाद्वरदः कृतोत्र हि कलौ श्री-
४५ सोमनाथः प्रभुः॥(২৬)
कर्म्मब्रह्म-विद्यां मुख्यः सर्व्वाकार-तपोनिधिः।
श्रौत-स्मार्त्त-रहस्येषु वागीश इव वि-
४६ श्रुतः॥(২৭)
एतस्मै शासनं प्रादाद्वैद्यदेव-क्षी(चि)तीश्वरः।
वैशाखे विषु[व]त्याञ्च स्वर्गार्थं हरिवासरे॥(২৮)

४७ स्वस्ति हंसाकोञ्ची-समावासित-श्रीमज्जयस्कन्धावारात् परममाहेश्वरः परमवैष्णवः(वो) महाराजाधि-
४८ राजः। परमेश्वरः परमभट्टारकः। श्रीमान् वैद्यदेव देवः कुशली। श्रीप्राग्‌ज्योतिष-भुक्तौ। कामरू-
४९ प-मण्डले। वाडा-विस(ष)ये भट्ट-गङ्गाधर-भुक्तक। शान्ति वडामन्दरा-ग्रामीय। यथा-प्रधान-प्रतिवासि। चट्टभट्ट-विस-
५० यिल्लकादि-ज(जा)नपदान् कर्षका[ं]श्च यथात्यागं मानयति। बोधयति समादिशति वः मतमस्तु भवतां। एतत् द्वयं
५१ चतुः शी(सी)मावच्छिन्नं। परिबो(रो)ध-शुद्धं अचट्टभट्ट-प्रवेसं(शं) सजलस्थलं। भूच्छिद्रञ्च अकिञ्चित्करग्राह्यं। चतुर्थाब्द-
५२ सं वैशाख-प्रथमादिना(?) गुग्गुली श्रीशृ(श्री)धर-शर्म्मणे चतुःशतिकं शासनीकृत्य प्रदत्तमस्माभिः तदेतस्मिन्
५३ विधेया भव्रेतेति। सं ४ सूर्य्यगत्या वैशाख-दिने १ नि॥ सन्तिवडा-मन्दरा-ग्रामयो रेकीभूय अष्टसीमा-

५४ न्निनय(?)कृतः। पूर्व्वदिश स्तावत् दिग्दाण्डिधर मादाय यावत् पश्चिमकूलसीमा॥ ऐशान-दिशः शिङ्गिआध-
५५ र-शी(सी)मा-लेङ्गवडा भोग्ये कंसपलभू १॥ उत्तरदिशः कोन्टुवाड़ोङ्गीनडजोली-नवधरा-शी(सी)मा॥
५६ शिरवडाशिल-गुडिभोग्यं किञ्चिदतिक्रम्य जयरातिपोला उणैपोला विरामादाय वाय-
५७ व्यदिस(श) पिपामुण्डा अश्वत्थशी(सी)मा अझड़ा-चौवोल। वूढि पोखिरि-पूर्व्वधर-कुलाचापडि अ-
५८ ष्टवल-पुराण-धर्म्मालि पश्चिमायावत् पश्चिमदिशः-शी(सी)मा किञ्चिद्धरक्रित्वा(?) नैर्ऋत्यदिशो ध-
५९ र्म्मालिमादाय नैपोशृङ्गारयो विवादभूमे र्वाट्यर्द्ध मादाय लच्छुवड़ास्थितैक-वाटीसमेत-घाटचम्पकः शी(सी)मा वे-
६० लवनी-पटानवपल। दक्षिणदिशः कुम्भकारभोग्यवहिः शी(सी)मा कोन्टोहाड़ाद् ध्रवोलयावत् हेलावणा-मुण्डमा
६१ दाय दिघ्दाण्डि यावत्। अग्निदिशः सीमा। एवं अष्टसीमा॥
द्वितीय पटकस्य चतुर्द्दश-पङ्क्त्याः॥

सन्तिपाट-
६२ क-सज्ञन्तु मन्दराग्रामसंयुत-
वडाविस(ष)य-सम्बद्धं भूच्छिद्रेणेति निश्वयात्॥(২৯)
सर्व्वायोपाय-संयुक्तं करोप-
६३ स्कर-वर्ज्जितं।
यावचन्द्रार्क-सभोग्यं यावदिच्छा-क्रियाफलं।
जल-स्थल-खिलारण्य-वाट-गोवाट-संयुतं॥(৩০)
कोष्ठ(ष्ठे) य-
६४ श्च करिस्यति स्वयमिदं य: कारयिस्यत्यसौ
पुत्रादिक्षय मभ्युदीक्ष्य निरये कल्पान्तरं स्थास्यति।

यः श्लाघ्यः परिपा-

[তৃতীয় ফলক]


६५ स्यति सुतै र्व्वितैः स वर्द्धिस्य(ष्य)ते
स्वर्ल्लोकं परिभुज्य यास्यति चिराद्विष्णो र्व्वरेण्यं पदं॥(৩১)
यावद्भास्कर-हिमकर-
६६ तारा-भूधर-प[यो]धि-वसुधाद्याः।
तावद्विलश(स)तु नृपतेः कीर्त्तिः श्रीवैद्यदेवस्य॥(৩২)
इमां राजगुरोः पुत्रः श्रीमुरारे र्द्वि-
६७ जन्मनः।
पद्मागर्भोद्भव श्चक्रे प्रसस्तिं श्रीमनोरथः॥(৩৩)
देवोयं रिपुचक्र-विक्रमकथा-प्रत्यर्थि-दोर्व्विभ्रमः
शश्वद्विश्व-
६८ परिभ्रमन्नवनवोन्मीलद्यशः(शाः) श्रीधरः।
एतस्मै मुदितो द्विजाति-पतये धर्म्माधिकारार्प्पित-
श्रीगोनन्दन-कोवि-
६९ दैकवचसा प्रादादिदं साशनं (शासनं)॥(৩৪)
कर्ण्णभद्रेण भद्रेण शिल्पिनानल्पबुद्धिना।
ताम्रं विनय-नम्रेण निर्म्मितं
७० साधु-कर्म्मणा॥(৩৫)
एतादृशे मुनि-वचनानि भवन्ति।
स्वदत्तां परदत्ताम्वा यो हरेत वसुन्धरां।
स विष्ठायां कृमि र्भूत्वा
७१ पच्यते पितृभि स्सह॥

गामेका[ं] स्वर्ण्ण मेकम्वा भूमेरप्यर्द्ध मङ्गुलं।
हरन्नरक मायाति यावदाहू-
७२ त-संप्लवं॥
बहुभि र्व्वसुधा दत्ता राजभिः सगरादिभिः।
यस्य यस्य यदा भूमि स्तस्य तस्य तदा फ-
७३ लं॥


বঙ্গানুবাদ।

ওঁ নমো ভগবতে বাসুদেবায়॥

॥স্বস্তি॥

(১)

 [অনন্ত] অম্বর-মণ্ডলের মান-দণ্ড,—সংসার-বীজ-রক্ষার বীজ-কুম্ভ[]—ক্রীড়াচ্ছলে [বরাহাবতারে] ধৃত-শূকর-শরীর,[]—দিগন্তর-পরিমিত-মূর্ত্তি,[]—শ্রীহরির জয় হউক।

(২)

 সেই [শ্রীহরির] দক্ষিণনয়নরূপী সূর্য্যদেবের বংশে[] পুরাকালে সকল-গুণ-গরিষ্ঠ বিগ্রহপাল[] নামক নৃপতি জন্মগ্রহণ করিয়াছিলেন।

(৩)

 বাহুবিক্রমে সুবিখ্যাত শাস্ত্রবিৎ-শ্রেষ্ঠ যোগদেব নামক সুপরিচিত [ব্যক্তি] বংশানুক্রমে সেই [নৃপতির] মন্ত্রী হইয়াছিলেন।

(৪)

 সেই প্রবলপরাক্রমশালী নরপালের রামপাল-নামক [এক] পুত্র জন্মগ্রহণ করিয়াছিলেন। তিনি পালকুল-সমুদ্রোত্থিত [শতকিরণ] চন্দ্র [রূপে প্রতিভাত], এবং সাম্রাজ্য-[লাভে] খ্যাতিভাজন হইয়াছিলেন। রামচন্দ্র যেমন অর্ণব লঙ্ঘন করিয়া, রাবণ-বধান্তে জনক-নন্দিনী লাভ করিয়াছিলেন; রামপালদেবও [যথাবৎ] সেইরূপ যুদ্ধার্ণব সমুত্তীর্ণ হইয়া, ভীম নামক ক্ষৌণী-নায়কের বধ সাধন করিয়া, জনকভূমি [বরেন্দ্রী] লাভে, ত্রিজগতে [শ্রীরামচন্দ্রের ন্যায়] আত্মযশঃ বিস্তৃত করিয়াছিলেন।[]

(৫)

 পুরাকালে [সেই রামপালদেবের] “তত্ত্ববোধভূ” বোধিদেব নামক সর্ব্বত্র[] সুপরিচিত বিশুদ্ধ-স্বভাব মন্ত্রী বর্ত্তমান ছিলেন। তিনি আশ্চর্য্য গুণ-গৌরবে পৃথিবীতে তাঁহার সমকক্ষ ব্যক্তিকে [উজ্ঝিত] অতিক্রান্ত করিয়াছিলেন,—[তৎকালে তাঁহার তুল্য গুণসম্পন্ন আর কেহই বর্ত্তমান ছিলেন না]।

(৬)

 প্রতাপদেবী ইঁহার পত্নী ছিলেন। তিনি ধর্ম্ম-ঋদ্ধি-কীর্ত্তির বিশ্রামভূমি বলিয়া পরিচিতা ছিলেন। তাঁহার কান্তি অসীম বলিয়া কথিত হইত; এবং তিনি স্বামি-সন্তোষের মূর্ত্তিমতী প্রতিমারূপে বর্ত্তমান ছিলেন।

(৭)

 সেই পত্নীর গর্ভে, পরমসৌন্দর্য্য-যুক্ত সুবিখ্যাত বৈদ্যদেব নামক বোধিদেবের পুত্র জন্ম গ্রহণ করেন। সেই পুত্রের উচ্ছলিত-কীর্ত্তি-সরোবর-মধ্যে কৈলাসপর্ব্বতও পদ্মাঙ্কুরের ন্যায় [ক্ষুদ্র বলিয়া প্রতিভাত হইয়া থাকে]।[]

(৮)

 তাঁহার জন্ম-কালে[] দৈবজ্ঞগণের মধ্যে এবং যাচকগণের মধ্যে হর্ষ-কোলাহল[১০] শ্রবণ করিয়া, শত্রু-সেনামণ্ডলী, আহার নিদ্রা এবং ধৈর্য্য ত্যাগ করিয়া, মূর্চ্ছিত হইয়া পড়িয়াছিল। [কিঞ্চ] তদীয় বন্ধুবৃন্দের নয়ন-নিঃসৃত হর্ষাম্বু-ধারায় শত্রুসেনার প্রতাপাগ্নিও নির্ব্বাপিত হইয়া গিয়াছিল।

(৯)

 তিনি সাম্রাজ্য-লক্ষ্মী-সেবিত সুবিখ্যাত রামপালদেবের পুত্র কুমারপাল নরপতির চিত্তানুরূপ মন্ত্রী হইয়াছিলেন। পরাজিত-শত্রুনরপাল-মুকুট-সমাহৃত স্বর্ণ-নির্ম্মিত যে সিংহ-মূর্ত্তি[১১] তদীয়[১২] [সমুচ্চ] প্রাসাদ-শিখর অলঙ্কৃত করিতেছে, সেই সিংহের গ্রাস-ত্রাসে সন্ত্রস্ত হইয়া, চন্দ্রমণ্ডল-মধ্যস্থ বিম্বাঙ্করূপী মৃগ পলায়নপর হইবে।

(১০)

 সচিব-সমাজ-পদ্মের [প্রীতি-বিবর্দ্ধক] তীক্ষ্ণ ভানু-তুল্য[১৩] এবং সুবিস্তৃত যশঃসাগরের তুল্য এই বৈদ্যদেব স্বভাব-সিদ্ধ-বদান্যতাগুণে [চম্পকেশ] কর্ণ এবং সুজনগণের মানস-কুমুদিনী [শীতরশ্মি] চন্দ্র [রূপে প্রতিভাত]।

(১১)

 দক্ষিণ-বঙ্গের[১৪] সমর-বিজয়-ব্যাপারে [চতুর্দ্দিক হইতে সমুত্থিত] তদীয় “নৌবাট-হীহীরবে”[১৫] সন্ত্রস্ত হইয়াও, দিগ্‌গজসমূহ[১৬] গম্যস্থানের অসদ্ভাবেই [স্বস্থান হইতে] বিচলিত হইতে পারে নাই। [কিঞ্চ] উৎপতনশীল ক্ষেপনী-বিক্ষেপে সমুৎক্ষিপ্ত জলকণাসমূহ আকাশে স্থিরতা লাভ করিতে পারিলে, [শীকর-বিধৌত] চন্দ্রমণ্ডল কলঙ্ক-মুক্ত হইতে পারিত।[১৭]

(১২)

 বাহুবীর্য্য-প্রভাকর ত্রিলোক-পরিপূর্ণ-যশা প্রজ্ঞান-বাচস্পতি গৌড়েশ্বর কুমারপাল নৃপতির তীক্ষ্ণবুদ্ধিসম্পন্ন গুণিগুণাগ্রগণ্য[১৮] সেই প্রধানামাত্য[১৯] [বৈদ্যদেব] সর্ব্বত্র “সপ্তাঙ্গক্ষিতিপাধিত্ব”[২০] [রক্ষার্থ] চিন্তা করিতেন বলিয়া, তাঁহার প্রাণাপেক্ষা প্রিয়তর বন্ধু হইয়াছিলেন।

(১৩)

 পূর্ব্বদিগ্বিভাগে[২১] বহুমান-প্রাপ্ত তিম্‌গ্যদেব-নৃপতির [বিকৃতি][২২] বিদ্রোহ-বিকার শ্রবণ করিয়া, গৌড়েশ্বর তাঁহার রাজ্যে এইরূপ [গুণগ্রাম-সমন্বিত] বিপুলকীর্ত্তিসম্পন্ন বৈদ্যদেবকে নরেশ্বর-পদে নিযুক্ত করিয়াছিলেন।

(১৪)

 সাক্ষাৎ মার্ত্তণ্ডবিক্রম বিজয়শীল সেই বৈদ্যদেব [আপন] তেজস্বী প্রভুর আজ্ঞাকে মাল্যদামের ন্যায় মস্তকে ধারণ করিয়া, কতিপয় দিবসের দ্রুত রণ-যাত্রার [অবসানে][২৩] নিজ-ভুজবিমর্দ্দনে[২৪] সেই অবনিপতিকে যুদ্ধে পরাভূত করিবার পর, [তদীয় রাজ্যে] মহীপতি হইয়াছিলেন।

(১৫)

 ইঁহার উৎকৃষ্ট-রণযাত্রা-কালে, আকাশ-তল ধূলিপটলে[২৫] [বালুকাকীর্ণ] যজ্ঞ-স্থলের[২৬] অবস্থা প্রাপ্ত হইলে, [তাহার উপর দিয়া রথাকর্ষণ করিতে] সূর্য্যাশ্বগণের[২৭] পদবিন্যাস-শ্রম উপস্থিত হইত। [কিঞ্চ] ইন্দ্রদেব তাঁহার দুইটি হস্তের দ্বারা [দুইটি] চক্ষু আবৃত করিয়া, [হস্তের দ্বারা] অন্য কার্য্য করিতে অসমর্থ হইয়া, তাঁহার [দেব] নয়নের অনিমীলনকর[২৮] স্বকর্ম্ম-[ফলের] নিন্দা করিয়া থাকেন।

(১৬)

 [অরণি-রূপে[২৯] ব্যবহৃত] বাহুদণ্ড-সংঘর্ষণোৎপন্ন, [ইন্ধন-রূপে[৩০] ব্যবহৃত] শত্রুসেনা-শরীর-সন্দীপিত, রণ-পূজিত হোমাগ্নি-মধ্যে [শ্রীফল-রূপে[৩১] ব্যবহৃত] রিপুশিরঃ-সমূহে হোম-বিধির অনুষ্ঠান করিয়া, [পূর্ণাহুতি-রূপে ব্যবহৃত] শত্রু-নরপালের নিধনসাধন এবং [যজ্ঞফল-রূপে উপার্জ্জিত] যশোলাভ করিয়া, এই বৈদ্যদেব দীপ্তিলাভ করিয়াছিলেন।

(১৭)

 সেই ভীষণ সমর-ক্ষেত্রের ভিতর হইতে খড়্গাঘাতে উৎপতনশীল রিপুশিরঃ-সমূহে গগন-মণ্ডল সমাচ্ছন্ন হইতে দেখিয়া, [সেই ছিন্নশিরঃ সমূহকে] সহসা রাহুব্যূহ-সমূহের[৩২] সমাগম মনে করিয়া, ভয়-সন্ত্রস্ত মার্ত্তণ্ডদেব ধূলিপটলের দ্বারা আত্ম-প্রভার বিলোপ সাধন করিয়া, আত্ম-গোপন করিয়াছিলেন।

(১৮)

 মহাসাগর [চন্দ্রস্যোদ্ভবভূঃ] চন্দ্রের উদ্ভব-স্থান; [মহীধ্র-শরণং] মহীধর পর্ব্বতগণের আশ্রয়; [সত্বপ্রধানাশয়ঃ] জীবগণের আধার; [পাত্রশ্রী-মহিতঃ] তলদেশে-শোভা-সমন্বিত; [স্ফুরৎ-রসময়ঃ] স্ফুরণশীল-সলিল-পরিপূর্ণ; [গভীরঃ পরঃ] নিরতিশয় গভীর গর্ভসংযুক্ত; [রত্নানাং নিলয়ঃ] রত্নরাজির নিকেতন; [শ্রিয়ঃ কুলগৃহং] লক্ষ্মীদেবীর কুলগৃহ; [স্বান্তস্থিত-শ্রীপতিঃ] লক্ষ্মীপতি বিষ্ণুর বিশ্রামস্থান;—এই বৈদ্যদেবও [চন্দ্রস্যোদ্ভবভূঃ] আহ্লাদের উদ্ভবস্থান; [মহীধ্র-শরণং] মহীপালক সামন্ত নরপালগণের আশ্রয়; [সত্ব-প্রধানাশয়ঃ] সত্বগুণান্বিত চিত্তসম্পন্ন; [পাত্রশ্রী-মহিতঃ] মন্ত্রি-সৌন্দর্য্যে সুশোভিত; [স্ফুরৎ-রসময়] স্ফুরণশীল বিবিধ রসে পরিপূর্ণ; [গভীরঃ পরঃ] নিরতিশয় গভীর জ্ঞান-সম্পন্ন; [রত্নানাং নিলয়ঃ] রত্নরাজির অধীশ্বর; [শ্রিয়ঃ কুলগৃহং] লক্ষ্মীর নিবাসস্থান; [স্বান্তস্থিত-শ্রীপতিঃ] অন্তঃকরণে বিষ্ণুচিন্তা-পরায়ণ;—এইরূপ, মহাসাগর যেমন [জলাধার] জলের আধার, তিনিও সেইরূপ [জলাধার] জড়ের প্রশ্রয়দাতা হইলে, এবং মহাসাগর যেমন [লঙ্ঘিতঃ] শ্রীরামানুচর-কর্ত্তৃক উল্লঙ্ঘিত, তিনিও সেইরূপ [লঙ্ঘিতঃ] অন্যের নিকট পরাভূত হইলে, এই বৈদ্যদেব [সর্ব্বাংশেই] অম্বুধি-সদৃশ বলিয়া কথিত হইতে পারিতেন।[৩৩]

(১৯)

 তিনি জ্ঞানে বৃহস্পতি, তেজে দিনপতি [সূর্য্যদেব], পুরুষকারে শ্রীপতি, ধৈর্য্যে অম্বুপতি, ধনে ধনপতি [কুবের] এবং দানকার্য্যে চম্পাপতি [কর্ণ]। ভাষায় এই সকল উপমা প্রসিদ্ধ বলিয়াই, তাঁহাকে এরূপ বলা হইল। কিন্তু আমরা তাঁহাকে সর্ব্বগুণোপেত “তৎসদৃশ” বলিয়াই বর্ণনা করিব।[৩৪]

(২০)

 তাঁহার শ্রীবুধদেব নামক এক অনুজ[৩৫] বর্ত্তমান। তিনি শ্রীরামভদ্রের অনুজ লক্ষ্মণের ন্যায় সেই সকল [প্রসিদ্ধ] নির্ম্মল গুণে ধর্ম্মর্দ্ধির এবং শীলর্দ্ধির আবাসভূমি বলিয়া পরিচিত। সৎফল-পল্লবপ্রসূ-দানকার্য্যে দ্বিজকুলকে প্রীতিদান করিয়া, বাহুবল-বিখ্যাত সেই কনিষ্ঠ ভ্রাতা কল্পতরুর প্রতিমূর্ত্তি বলিয়া সুবিখ্যাত [হইয়াছেন]।

(২১)

 [পুরাকালে] মুনীন্দ্রাগ্রগণ্য স্বগোত্র-সংস্থাপক কৌশিক নামক মুনি বর্ত্তমান ছিলেন। পদ্মজন্মা ব্রহ্মার মুখচতুষ্টয়ে ভ্রমণ করিতে করিতে পরিশ্রান্ত হইয়া, সরস্বতীদেবী তাঁহার [কৌশিকের] মুখপদ্মে আসিয়া, সুখে অবস্থিতি করিতে সমর্থ হইয়াছিলেন।

(২২)

 তদীয় মহদ্বংশে, বরেন্দ্রীর অন্তর্গত, সুশাসন-সম্পন্ন[৩৬] ভাবগ্রামে, ভরত নামক ব্রাহ্মণ প্রাদুর্ভূত হইয়াছিলেন। তাঁহার গুণগ্রামের উল্লেখ করা দূরে থাকুক, তাঁহার নাম মাত্রের উল্লেখ করিলেই, সমস্ত পাপ-প্রপঞ্চ বিনষ্ট হইয়া যায়।

(২৩)

 তাঁহার যুধিষ্ঠির নামক বিপ্র[কুল]তিলক পণ্ডিতাগ্রগণ্য পুত্র জন্ম গ্রহণ করিয়াছিলেন। তিনি শাস্ত্রজ্ঞান-পরিশুদ্ধ-বুদ্ধি এবং শ্রোত্রিয়ত্বের সমুজ্বল যশোনিধি ছিলেন।

(২৪)

 এই পণ্ডিতবরের চিত্ত-বিশ্রাম-দায়িনী পাই[৩৭] নাম্নী ধর্ম্মপত্নী অসীমসৌন্দর্য্যশালিনী এবং শীলৌদার্য্যশ্রীর নিবাসরূপিণী বলিয়া পরিচিতা ছিলেন।

(২৫)

 তাঁহার [গর্ভে] পূর্ব্বজন্মার্জিত কর্ম্মসমূহের পরিণত [পুণ্য] ফলরূপে দ্বিজাধীশ-পূজ্য শ্রীধর নামক পুত্র জন্মগ্রহণ করিয়াছিলেন।

(২৬)

 তীর্থভ্রমণে, বেদাধ্যয়নে, দানাধ্যাপনায়, যজ্ঞানুষ্ঠানে, ব্রতাচরণে সর্ব্বশ্রোত্রীয়শ্রেষ্ঠ [শ্রীধর] প্রাতঃ, নক্ত, অযাচিত, এবং উপবসন [নামক বিবিধ কৃচ্ছ্রসাধন করিয়া] এখানে এই কলিযুগে শ্রীসোমনাথপ্রভু [মহাদেবকে] গুগ্‌গুল-বৃক্ষাভ্যন্তর হইতে আকর্ষণ করিয়া প্রসন্ন করিয়াছিলেন।

(২৭)

 [তিনি] কর্ম্মকাণ্ড-জ্ঞানকাণ্ড-বিৎ পণ্ডিতগণের অগ্রগণ্য, সর্ব্বাকার-তপোনিধি এবং শ্রৌত-স্মার্ত্ত-শাস্ত্রের গুপ্তার্থবিৎ বাগীশ বলিয়া থ্যাতিলাভ করিয়াছেন।

(২৮)

 মহারাজ বৈদ্যদেব বৈশাখে বিষুবৎ-সংক্রান্তিতে একাদশী-তিথিতে স্বর্গ-কামনায় ইঁহাকে শাসন-দান কবিয়াছেন।

[এতৎপরবর্ত্তী গদ্যাংশের অনুবাদ মুদ্রিত হইল না।]

(২৯)

 মন্দরাগ্রাম-সংযুক্ত-বড়াবিষয়ান্তর্গত-সন্তিপাটক নামক স্থান “ভূমিচ্ছিদ্রন্যায়ের” নিশ্চয়ে,

(৩০

 কর এবং উপস্কর-বর্জ্জিত সর্ব্বপ্রকারের আয়ের সহিত, জলস্থল-খিল-অরণ্য-বাট-গোবাট-সংযুক্ত [স্থান] যাবচ্চন্দ্রদিবাকর ইচ্ছানুসারে ফলভোগ করিবার অভিপ্রায়ে [প্রদত্ত হইল।]

(৩১)

 যিনি ইহা স্বয়ং আত্মসাৎ করিবেন, বা করাইবেন, তিনি পুত্রাদির নিধন দর্শন করিয়া, কল্পান্তকাল পর্য্যন্ত নরকবাস করিবেন। যিনি ইহাকে রক্ষা করিবেন, তাঁহার উন্নতি হইবে, তিনি দীর্ঘকাল স্বর্গভোগ করিয়া, বরণীয় বিষ্ণুপদ লাভ করিবেন।

(৩২)

 যে পর্য্যন্ত ভাস্কর [সূর্য্য] হিমকর [চন্দ্র] তারা, ভূধর, পয়োধি [সমুদ্র] এবং বসুধাদি,—তৎকালপর্য্যন্ত শ্রীবৈদ্যদেব-নৃপতির [এই] কীর্ত্তি বিলসিত হউক।

(৩৩)

 রাজগুরু দ্বিজবর শ্রীমুরারির পুত্র পদ্মাগর্ভোৎপন্ন শ্রীমনোরথ এই প্রশস্তি রচনা করিয়াছেন।

(৩৪)

 এই রাজা বৈদ্যদেবের বাহুবিক্রমে রিপুচক্রের বিক্রমকথা বিদূরিত হইয়াছে, এই ব্রাহ্মণ শ্রীধরের যশোরাশিও ভুবন ভ্রমণ করিয়া নব নব ভাবে উন্মীলিত হইয়াছে। [রাজা] নিরতিশয় হর্ষযুক্ত হইয়া, ধর্ম্মাধিকার-পদাভিষিক্ত শ্রীগোনন্দন পণ্ডিতের বাক্যে [প্রার্থনায়] এই ব্রাহ্মণকে এই শাসন প্রদান করিয়াছেন।

(৩৫)

 ভদ্র কর্ণভদ্র নামক অনল্পবুদ্ধি বিনয়নম্র শিল্পিকর্ত্তৃক সাধুকর্ম্মের দ্বারা এই তাম্র (শাসন) নির্ম্মিত হইল।

[৫৩ পংক্তি] সং ৪ সূর্য্যগত্যা বৈশাখদিনে ১ নি(বদ্ধং)।


মূলপাঠের টীকা

সম্পাদনা

^(১-২)  পথ্যার্য্যা। দ্বিতীয় শ্লোকের “দৃশো” অধ্যাপক ভিনিস্ কর্ত্তৃক “দশো”রূপে মুদ্রিত হইয়াছে।

^(৩)  পথ্যাবক্ত্র।

^(৪)  শার্দ্দূল-বিক্রীড়িত।

^(৫)  রথোদ্ধতা।

^(৬)  পথ্যার্য্যা। এই শ্লোকের “বিশ্রান্তিঃ” শব্দটি তাম্রপট্টে উপর্য্যুপরি দুইবার উৎকীর্ণ রহিয়াছে।

^(৭)  বংশস্থ ও ইন্দ্রবজ্রা সংযুক্ত উপজাতি। এই শ্লোকের “শ্রীবৈদ্যদেবঃ”-শব্দের পূর্ব্বে “শ্রীবৈ” এই দুইটি অতিরিক্ত অক্ষর তাম্রপট্টে উৎকীর্ণ রহিয়াছে; এবং “সরোবরোদ” শব্দের পরবর্ত্তী “রে” অক্ষরটি স্থানপ্রাপ্ত হয় নাই। (উইকিসংকলন টীকা: “রে” অক্ষরটি তাম্রপট্টের নিচে পাদটীকা হিসেবে দেওয়া আছে, পংক্তিসংখ্যা ৯ সহ।)

^(৮-৯)  শার্দ্দূল-বিক্রীড়িত। অষ্টম শ্লোকের “তর্ক্ককেষু”-শব্দ অধ্যাপক ভিনিস্ কর্ত্তৃক “তর্ক্কুকেষু” রূপে মুদ্রিত হইলেও, mendicant বলিয়াই ব্যাখ্যাত হইয়াছে। তর্ক্ককঃ = যাচক ইতি হেমচন্দ্রঃ। তথাহি মহাভারতে ১২৷৪৫৷৬

“तथानुजीविनो भृत्यान् संश्रितानतिथीनपि।
कामैः सन्तर्पयामास कृपणां स्तर्ककानपि॥”

^(১১-১২)  শার্দ্দূল-বিক্রীড়িত।

^(১৩)  বসন্ততিলক। “শ্রীতিম্গ্য” পাঠ উদ্ধৃত হইল; ইহা “শ্রীতিঙ্গ্য” রূপেও পাঠ করা যায়।

^(১৪)  হরিণী।

^(১৫-১৬)  শার্দ্দূল-বিক্রীড়িত।

^(১৭)  মালিনী। এই শ্লোকের ‘ব্যূহ’-শব্দ অধ্যাপক ভিনিস্ কর্ত্তৃক ‘ব্যহ’-রূপে মুদ্রিত হইলেও, ব্যূহ-রূপেই ব্যাখ্যাত হইয়াছে;—তাম্রপট্টেও “ব্যহ” অপেক্ষা “ব্যূহ”-পাঠই প্রতীয়মান হয়। ছন্দের এবং অর্থসঙ্গতির সহিত “ব্যূহ”-শব্দের সামঞ্জস্য থাকায়, প্রশস্তি-পাঠে “ব্যূহ”-শব্দই গৃহীত হইল।

^(১৮-২০)  শার্দ্দূল-বিক্রীড়িত। বিংশতি শ্লোকের “মহীরূহ” প্রথমে “মরূহ” রূপে, এবং “চঞ্চদ্যশাঃ” প্রথমে “জৃম্ভায়সাঃ” রূপেই উৎকীর্ণ হইয়াছিল; পরে যথাস্থানে স্থানাভাববশতঃ সংশোধিত পাঠ তাম্রপট্টের পার্শ্বদেশে উৎকীর্ণ হইয়াছে। এই শ্লোকের “সৎফল” প্রথমে “শোভন” রূপে উৎকীর্ণ হইয়াছিল; পরে সংশোধিত হইয়াছে।

^(২১)  বংশস্থবিল।

^(২২)  মন্দাক্রান্তা।

^(২৩)  রথোদ্ধতা।

^(২৪)  পথ্যার্য্যা।

^(২৫)  পথ্যাবক্ত্র।

^(২৬)  শার্দ্দূল-বিক্রীড়িত।

^(২৭-২৮)  পথ্যাবক্ত্র।

^(২৯-৩০)  পথ্যাবক্ত্র।

^(৩১)  শার্দ্দূল-বিক্রীড়িত।

^(৩২)  পথ্যার্থা।

^(৩৩)  পথ্যাবক্ত্র।

^(৩৪)  শার্দ্দূল-বিক্রীড়িত।

^(৩৫)  পথ্যাবক্ত্র।

প্রশস্তি-পরিচয় ও অনুবাদ-অংশের টীকা

সম্পাদনা
  1. বীজের বপন-যোগ্য অবস্থা স্থির রাখিবার জন্য কলশ-মধ্যে বীজ রক্ষা করিবার প্রথা ছিল। সেই প্রথার উল্লেখ করিয়া, শ্রীহরিকে সংসার-বীজ-রক্ষার [কুম্ভ] কলশ বলিয়া বর্ণনা করা হইয়াছে।
  2. “ক্রীড়া-পোত্রী”-শব্দের অর্থ,—“ক্রীড়াচ্ছলে পোত্রীরূপ-ধারণকারী।” “পোত্রী”-শব্দের অর্থ,—শূকর। [অমরকোষ ২।৫।২]
  3. “হরিদন্তরমিত-মূর্ত্তি” এই বিশেষণের “হরিৎ”-শব্দ নানার্থ-বাচক হইলেও, এখানে দিগ্বাচক-অর্থেই ব্যবহৃত হইয়াছে। অমরকোষের [১।৩।১]

    “दिशस्तु ककुभः काष्ठा आशाश्च हरितश्च ताः।”

    স্মরণীয়। মহাকবি কালিদাসও [রঘুবংশে ৩।৩০] দিগ্বাচক-অর্থে “হরিৎ”-শব্দের ব্যবহার করিয়া গিয়াছেন।

  4. পাল-রাজগণের জাতি কি ছিল, তাঁহাদিগের শাসন-লিপিতে তাহার উল্লেখ দেখিতে পাওয়া যায় না। তাঁহারা কেহ কেহ ক্ষত্রিয়-বংশে বিবাহ করিয়াছিলেন; শাসন-লিপিতে তাহার উল্লেখ আছে। বৈদ্যদেব এই শাসন-লিপিতে পাল-রাজগণকে স্পষ্টাক্ষরে “সূর্য্যবংশ-সম্ভূত” বলিয়াই পরিচয় প্রদান করিয়া গিয়াছেন। সন্ধ্যাকর নন্দি-বিরচিত “রামচরিত” কাব্যে পাল-রাজগণ “সিন্ধুকুলোদ্ভূত” বলিয়া উল্লিখিত।
  5. এই শ্লোকোক্ত বিগ্রহপাল ইতিহাসের তৃতীয় বিগ্রহপাল।
  6. অধ্যাপক ভিনিস্ এই শ্লোকোক্ত “জনকভূ”-শব্দের মিথিলা-অর্থ গ্রহণ করিয়া, রামপাল কর্ত্তৃক ভীম নামক মিথিলাধিপতির পরাজয়-সাধনের ইঙ্গিত করিয়া লিখিয়াছেন,—“I can not identify the name.” এই শ্লোকের সহিত মিথিলার সম্পর্ক নাই। “জনকভূ”-শব্দে পাল-রাজগণের জন্মভূমি “বরেন্দ্রী” সূচিত হইয়াছে। তৃতীয় বিগ্রহপালদেবের পরলোক গমনের পর, তদীয় জ্যেষ্ঠপুত্র দ্বিতীয় মহীপালদেবের যথেচ্ছ-শাসনে সংক্ষুব্ধ হইয়া প্রজাপুঞ্জের নায়ক [কৈবর্ত্তজাতীয় দিব্য] তাঁহাকে সিংহাসনচ্যুত ও নিহত করিলে, কিয়ৎকালের জন্য পাল-রাজগণের “জনকভূ” [বরেন্দ্রী] দিব্য, তস্য ভ্রাতা রুদোক, এবং ভ্রাতুষ্পুত্র ভীম নামক ক্ষৌণী-নায়কের করতলগত হইয়াছিল। রামপাল বহু চেষ্টায়, বহু ক্লেশে, সেই “জনকভূ”র উদ্ধার সাধন করিয়াছিলেন বলিয়া, [স্বনাম-সাদৃশ্যে এবং স্বকার্য্য-সাদৃশ্যে] দ্বিতীয় রামচন্দ্র রূপে প্রতিভাত হইয়াছিলেন। রাজকবি এই ঐতিহাসিক ঘটনা বিবৃত করিবার অভিপ্রায়ে, রাম-পক্ষে এবং রামপাল-পক্ষে তুল্যরূপে প্রযোজ্য “जनकभू-लाभात्”, “भीम-रावण-वधात्” এবং “युद्धार्ण्णवोलङ्घनात्” এই তিনটি শ্লিষ্ট-পদের ব্যবহার করিতে বাধ্য হইয়াছেন। সন্ধ্যাকরনন্দি-বিরচিত “রামচরিত” কাব্যে এই ঐতিহাসিক ঘটনার আনুপূর্ব্বিক বিবরণ দেখিতে পাওয়া যায়, এবং তাহার কোন কোন স্মৃতিচিহ্ন বরেন্দ্র-ভূমিতে অদ্যাপি বর্ত্তমান আছে। এই প্রশস্তিতে কৈবর্ত্ত-রাজ ভীম “ক্ষোণী-নায়ক” বলিয়া উল্লিখিত;—রাজকবি তাঁহাকে “নায়ক” মাত্রই বলিয়াছেন, রাজা বলেন নাই।
  7. এই শ্লোকের “বিশ্বক্”-শব্দের অর্থ—সর্ব্বতঃ। “উজ্ঝিকাত্ম-সদৃশঃ”-বিশেষণটিও উল্লেখ-যোগ্য। এতদ্বারা বোধিদেবের অদ্বিতীয়ত্ব প্রতিপাদিত হইয়াছে।
  8. সরোবরের তুলনায় তদ্‌গর্ভ-নিহিত পদ্মাঙ্কুর অতি ক্ষুদ্র। এই বৈদ্যদেবের কীর্ত্তি-সরোবরে কৈলাস পর্ব্বতও সেইরূপ। কীর্ত্তি শুভ্রা বলিয়া, অতি শুভ্র কৈলাস-পর্ব্বতের সহিত তাহার উপমা দিবার যে রীতি ছিল, রাজকবি তাহার প্রতি লক্ষ্য করিয়া বলিয়া গিয়াছেন,—বৈদ্যদেবের কীর্ত্তি সেই সুপরিচিত উপমানকেও পরাভূত করিয়াছে।
  9. “জনুর্দ্দিষ্ট”-শব্দের অর্থ—জন্মকাল। জন্ম-বাচক জনুস্-শব্দ বৈদিক-সাহিত্যেও [ঋগ্বেদ ৪।১৭।২০] প্রচলিত ছিল। অমরকোষের [১।৪।৩০]

    “जनु र्जनन-जन्मानि जनि-रुत्पत्ति-रुद्भवः।”

    স্মরণীয়। কালবাচক অর্থে [অমরকোষ ১।৪।১] “দিষ্ট”-শব্দের ব্যবহারে “জন্ম-কাল”-অর্থ সুব্যক্ত হইয়াছে।

  10. দিষ্টিঃ-শব্দের অর্থ—হর্ষঃ।
  11. कण्ठीरवः सिंह इति त्रिकाण्डशेषः। “গ্রাস-ত্রাসবশাৎ” বলিয়া, রাজকবি প্রাসাদের সমধিক উচ্চতা ধ্বনিত করিয়াছেন। সমুচ্চ প্রাসাদ-শিখরে সংস্থাপিত সিংহ-মূর্ত্তি, চন্দ্রমণ্ডলের নিকটবর্ত্তী বলিয়া প্রতিভাত হইয়াই, “গ্রাস-ত্রাসের” উৎপাদন করিয়াছে।
  12. এই শ্লোকের তৃতীয় চরণের “যস্য”-শব্দের অনুবাদে অধ্যাপক ভিনিস্ বৈদ্যদেবকেই লক্ষ্য করিয়া লিখিয়াছেন,—The deer which is formed in the orb of the moon will run away through fear of being swallowed by the lions represented on the palace, which is made of gold from diadems of the enemies of this (Vaidyadeva). এরপ অনুবাদে প্রাসাদই স্বর্ণ-নির্ম্মিত ছিল বলিয়া প্রতিভাত হয়। কিন্তু

    “यस्याराति-किरीट-हाटक-कृत-प्रासाद-कण्ठीरव”—

    এইরূপ পদচ্ছেদে পাঠ করিলে, “প্রাসাদ-কণ্ঠীরব”ই “অরাতি-কিরীট-হাটক-কৃত” বলিয়া প্রতিভাত হয়। ইহাতে কুমারপালের প্রাসাদই সূচিত হয়।

  13. ‘तिग्म’ ‘तीक्ष्ण’।
  14. অধ্যাপক ভিনিস্ এই শ্লোকের ইংরাজী অনুবাদে “অনুত্তর-বঙ্গকে” দক্ষিণ-বঙ্গ বলিয়া গ্রহণ করিয়াও, [অর্থান্তরের আভাস প্রদানের জন্য] পাদ-টীকায় লিখিয়াছেন,—Anuttara = “Complete” may qualify “Victory.” কিন্তু এই শ্লোকে নদীবহুল দক্ষিণ বঙ্গেই জলযুদ্ধ সংঘটিত হইবার পরিচয় প্রাপ্ত হওয়া যায়। কাহার সহিত এই যুদ্ধ সংঘটিত হইয়াছিল, তাহার উল্লেখ নাই;—কিন্তু বৈদ্যদেবের বিজয়লাভের উল্লেখ আছে।
  15. “নৌবাট-হীহীরব” নৌবাহিনীর বিজয়োল্লাস-বিজ্ঞাপক হর্ষ-ধ্বনি। একালের “হাহা-রবের” ন্যায়, সেকালের “হীহী-রবও” অব্যক্তানুকরণ মাত্র। অমরকোষে “হীহী”-শব্দ দেখিতে পাওয়া যায় না; কেবল “अही ही च विजये” বলিয়া হী-শব্দই ব্যাখ্যাত রহিয়াছে। মেদিনীকোষে বিস্ময় এবং হাস্যবিজ্ঞাপক “হীহী” শব্দ দেখিতে পাওয়া যায়। এই শ্লোকের “হীহীরব” সেরূপ অর্থে প্রযুক্ত হইয়াছে বলিয়া বোধ হয় না। সেকালে বাঙ্গালীর বিজয়োল্লাস-বিজ্ঞাপক হর্ষ-ধ্বনি দিগ্‌গজগণকেও সন্ত্রস্ত করিয়া তুলিত। সুতরাং ইহাকে এক শ্রেণীর রণ-নিনাদ বলিয়াই গ্রহণ করিতে হইবে। তাহা একের পক্ষে হর্ষ-বিজ্ঞাপক হইলেও, অপরের পক্ষে ত্রাসোৎপাদক।
  16. “দিক্‌-করি”-শব্দে অষ্টদিকের অষ্ট দিগ্‌গজ সূচিত হইয়াছে। পূর্ব্বাদিক্রমে অষ্টদিকে যে অষ্ট দিগ্‌গজ অবস্থিত, অমরকোষে [১।৩।৪] তাহাদিগের নাম যথাক্রমে উল্লিখিত রহিয়াছে। যথা,—

    “ऐरावतः पुण्डरीको वामनः कुमुदोऽञ्जनः।
    पुष्पदन्तः सार्व्वभौमः सुप्रतीकश्च दिग्गजाः॥”

  17. এই শ্লোকের “কেনিপাত”-শব্দ শব্দরত্নাবলীতে “অরিত্রং” বলিয়া উল্লিখিত। “के जले निपात्यतेऽसौ।”
  18. “গুণি-গ্রামণীঃ” একটি উল্লেখযোগ্য প্রয়োগ। প্রধান-অর্থে “গ্রামণী”-শব্দ ঋগ্বেদে [১০।১০৭।৫] ব্যবহৃত হইয়াছে। এই অর্থে “গ্রামণী”-শব্দের ব্যবহার মহাগণপতি-স্তোত্রে সুপরিচিত। যথা,—

    “कर्णान्दोलन-खेलनो विजयते देवो गण-ग्रामणीः।”

  19. অধ্যাপক ভিনিস্ এই শ্লোকের ইংরাজী অনুবাদে লিখিয়াছেন,—He (Vaidyadeva) chief among the virtuous, sternly keeping in mind the kingdom in all its parts, was minister, dearer even than life, to king Kumárapála. কিন্তু বৈদ্যদেব যে কুমারপালের সচিব ছিলেন, তাহা নবম শ্লোকে উল্লিখিত হইবার পর, পুনরায় সেই কথার উল্লেখ করিবার জন্য এই শ্লোকের প্রয়োজন ছিল না। এই শ্লোকের বলিবার কথা,—সেই সচিব [বৈদ্যদেব] কুমারপাল নৃপতির প্রাণাপেক্ষা প্রিয়তর “বন্ধু” হইয়াছিলেন। নিরন্তর নিজ প্রভুর “সপ্তাঙ্গ-ক্ষিতিপাধিত্ব”-রক্ষার্থ বৈদ্যদেবের চিন্তাই তাহার হেতুরূপে উল্লিখিত।
  20. “সপ্তাঙ্গক্ষিতিপাধিত্ব” একটি পারিভাষিক শব্দ। রাজ্যের মূল-প্রকৃতি সপ্তভাগে বিভক্ত,—তাহা “সপ্তাঙ্গ” নামে পরিচিত ছিল। যাজ্যবল্ক্য-সংহিতায় [আচারাধ্যায়ে রাজধর্ম্ম প্রকরণে] এই “সপ্তাঙ্গে”র এবং [বিজ্ঞানভিক্ষু-কৃত] মিতাক্ষরা-টীকায় তাহার তাৎপর্য্যের পরিচয় প্রাপ্ত হওয়া যায়। যথা,—

    “साम्यमात्या जनो दुर्गं कोशो दण्ड स्तथैव च।
    मित्राण्येताः प्रकृतयो राज्यं सप्ताङ्ग मुच्यते॥”

    “महोत्साह इत्याद्युक्तलक्षणो महीपतिः स्वामी, अमात्या मन्त्रि-पुरोहितादयः, जनो ब्राह्मणादि-प्रजाः, दुर्गं धन्वदुर्गादि, कोशः सुवर्णादि-धनराशिः, दण्डो हस्त्यश्वरथपत्ति-लक्षणः चतुरङ्ग-बलं, मित्राणि सहज-कृत्रिम-प्राकृतानि, एताः स्वाम्याद्याः राज्यस्य प्रकृतयो मूल-कारणानि;—एवं राज्यं सप्ताङ्ग मुच्यते॥”

  21. “হরি-হরিদ্ভুবি” একটি উল্লেখযোগ্য প্রয়োগ। হরি-শব্দের অর্থ “ইন্দ্র”, হরিৎ-শব্দের অর্থ “দিক্‌”—সুতরাং “পূর্ব্বদিক্‌”। কারণ, ইন্দ্র পূর্ব্বদিক্‌‌পাল বলিয়াই সুপরিচিত।
  22. “বিকৃতি”-শব্দ অধ্যাপক ভিনিসের ইংরাজী অনুবাদে disaffection বলিয়া উল্লিখিত হইয়াছে। “বিকৃতি”-শব্দের সাধারণ অর্থ “বিকারঃ”। এখানে সাংখ্য-দর্শনোক্ত পারিভাষিক অর্থ ধ্বনিত হইয়াছে কিনা, তাহা চিন্তনীয়।
  23. “कतिपयदिनै र्द्दत्वा प्रयाणं” এই পদের “দত্বা” রচনা-রীতির উৎকর্ষ-বিজ্ঞাপক বলিয়া কথিত হইতে পারে না। অধ্যাপক ভিনিস্ লিখিয়াছেন,—One would expect प्रयाणं कृत्वा।
  24. “নিজ-ভুজ-পরিস্পন্দৈঃ”—নিজের বাহুপ্রকম্পনলব্ধ আত্মবলেরই পরিচয় প্রদান করিতেছে। “বিমর্দ্দন”-অর্থেও “পরিস্পন্দ”-শব্দের ব্যবহার দেখিতে পাওয়া যায়। যথা, মহাভারতে [১।১৫৪।৮]

    “अहमेनं हनिष्यामि प्रेक्षन्त्यास्ते सुमध्यमे।
    नायं प्रतिबलो भीरु राक्षसापसदो मम।
    सोढ़ुं युधि परिस्पन्द मथवा सर्व्वराक्षसाः॥”

    অধ্যাপক ভিনিস্ “by the energy of his own arm” বলিয়া ইংরাজীতে অনুবাদ করিয়াছেন। কুমারপালদেব আদেশ প্রচার করিলেও, এই রাজ্যলাতে যে বৈদ্যদেবেরও কৃতিত্ব ছিল, তাহাই ধ্বনিত করিবার জন্য, এই শব্দ ব্যবহৃত হইয়াছে। সুতরাং এখানে “বিমর্দ্দন”-অর্থই সঙ্গত বলিয়া গৃহীত হইল।

  25. এই শ্লোকের “উৎকর”-শব্দ অমরকোষে [২।৫।৪২] “पुञ्जराशीतूत्करः” বলিয়া ব্যাখ্যাত। তদ্বারা ধান্যাদি স্তূপীকৃত পদার্থের রাশি বুঝায়। কবিগুরু [রামায়ণে] এই শব্দের ব্যবহার করিয়া গিয়াছেন। যথা,—

    “सिक्त-राजपथान् रम्यान् प्रकीर्ण-कुसुमोत्करान्।”

  26. “স্থণ্ডিল”-শব্দ সুপরিচিত। অমরকোষে [২।৭।১৮) “समे स्थण्डिल-चत्वरे” বলিয়া, এবং শব্দরত্নাবলীতে

    “यज्ञे परिष्कृतस्थाने स्यातां स्थण्डिल-चत्वरे।”

    বলিয়া, তাহার ব্যাখ্যা দেখিতে পাওয়া যায়। সেকালে বরেন্দ্র-মণ্ডলে তান্ত্রিকাচার প্রবল থাকিলেও, “স্থণ্ডিলের” ব্যবহার অক্ষুণ্ণ ছিল। শারদা-তিলকে তাহার পরিচয় প্রাপ্ত হওয়া যায়। যথা,—

    “नित्यं नैमित्तिकं काम्यं स्थण्डिले वा समाचरेत्।”

  27. “সপ্তিক”-শব্দের অর্থ—অশ্ব।
  28. দেব-চক্ষু স্পন্দন-রহিত বলিয়া যে প্রসিদ্ধি আছে, তদবলম্বনে এই শ্লোক রচিত হইয়াছে।
  29. অগ্নিমন্থন-কাষ্ঠের নাম “অরণি”। তজ্জন্য এখানে বাহু-সংঘর্ষণ অরণি-সংঘর্ষণ-রূপে কল্পিত হইয়াছে। এই শ্রেণীর আর একটি কবি-কল্পনা “ধনঞ্জয়-বিজয়ে” দেখিতে পাওয়া যায়। যথা,—

    विपक्ष-वक्षोऽरणि-मन्थनोत्थः
    प्रताप-वह्ने रिव धूम-लेखा।”

  30. অগ্নি-সন্দীপক তৃণকাষ্ঠাদি সমস্তই “ইন্ধন” নামে কথিত হইবার যোগ্য হইলেও, এখানে [ভটব্রাত] সেনা-সমূহই যজ্ঞাগ্নি-সন্দীপক “সমিৎ”রূপে কল্পিত হইয়াছে।
  31. হোম-কর্ম্মে ব্যবহার্য্য ফলের মধ্যে শ্রীফলের কথাও [তন্ত্রসারে] উল্লিখিত আছে। এই কল্পনায় আরও একটি তথ্য ধ্বনিত হইয়া থাকিতে পারে। শ্রীফলের দ্বারা হোম করিতে হইলে, তাহাকে তিন ভাগে বিভক্ত করিবার ব্যবস্থা আছে। যথা,—

    “त्रिधाकृतं फलं विल्वम्।”

  32. মেদিনী-কোষে “বিসর”-শব্দ ‘প্রসর’ বলিয়া ব্যাখ্যাত হইলেও, ইহার “সমূহার্থই” সুপরিচিত। যথা অমরকোষে [২।৫।৩৯]

    “समूह-निवह-व्यूह-सन्दोह-विसर-व्रजाः।
    स्तोमौख-निकर-व्रात-वार-संघात-सञ्चयाः॥”

    এখানে “বিসর-রাহুব্যূহ” পদে বহুসংখ্যক [ব্যূহাকারে সজ্জিত] রাহুগণের সমাগম কল্পিত হইয়াছে। যে সূর্য্যদেব একটিমাত্র রাহু-সমাগমে সন্ত্রস্ত হইয়া থাকেন, তাঁহার পক্ষে বহুসংখ্যক [ব্যূহাকারে সজ্জিত] রাহুগণের সমাগম অত্যন্ত অধিক শঙ্কা সূচিত করিতেছে।

  33. এই শ্লোকে অনেক দ্ব্যর্থ-শব্দ ব্যবহৃত হইয়াছে। “চন্দ্র”-শব্দে চন্দ্রদেবকে এবং আহ্লাদজনক ব্যক্তিকে বুঝিতে হইবে। সেইরূপ,—“মহীধ্র-শরণ”-শব্দের এক অর্থ “পর্ব্বতসমূহের আশ্রয়”, অন্য অর্থ “মহীপালগণের আশ্রয়”;—“সত্ব”-শব্দের এক অর্থ “জীব”, অন্য অর্থ “সত্ব-গুণ”;—“পাত্র”-শব্দের এক অর্থ [তীরদ্বয়ান্তরং ইতি মেদিনী] “উভয় তীরের মধ্যবর্ত্তী তল-দেশ”, অন্য অর্থ “রাজমন্ত্রী”; “মহিতঃ”-শব্দটি উল্লেখযোগ্য। পূজা-বিজ্ঞাপক মহ্-ধাতু হইতে [৩।২।১৮৮] পাণিনি-সূত্রানুসারে নিষ্পন্ন “মহিতঃ”-শব্দের অর্থ “পূজিতঃ”। ভট্টিকাব্যে [১০।২] “রাম-মহিতঃ” প্রয়োগ দ্রষ্টব্য। “রস”-শব্দের এক অর্থ “জল”, অন্য অর্থ “বিবিধ রস”;—“আশয়”-শব্দের এক অর্থ “আধারঃ”, অন্য অর্থ “চিত্ত”;—“স্বান্ত”-শব্দের এক অর্থ [গহ্বরং ইতি মেদিনী] গহ্বর, ইহার প্রয়োগ ভাগবতে [২।৬।৩৪] দ্রষ্টব্য, অন্য অর্থ [স্বান্তং মনঃ ইত্যমরঃ ১।৪।৩১] মন বা অন্তঃকরণ। “জলাধার”-শব্দের “জলাশয়”-অর্থ অমরকোষে [১।১০।২৫] সুবিদিত; “জল”-শব্দের আর একটি অর্থ “জড়” মেদিনী-কোষে দ্রষ্টব্য। দুইটি বিষয়ে মহাসাগরের সঙ্গে বৈদ্যদেবের সাদৃশ্যের অভাব দেখাইয়া, কবি বলিয়া গিয়াছেন,—যদি সেই দুইটি বিষয়েও সাদৃশ্য থাকিত, তাহা হইলে বৈদ্যদেবকে “অম্বুধি-সদৃশই” বলা যাইতে পারিত। ইহাতে বৈদ্যদেবের প্রাধান্যই ধ্বনিত হইয়াছে। এক সময়ে এই শ্রেণীর রচনা কবি-প্রতিভার উৎকৃষ্ট নিদর্শন বলিয়াই পরিচিত ছিল।
  34. এই শ্লোকের শেষ ভাগে কবি “অনন্যয়ালঙ্কারের” অবতারণা করিবার চেষ্টায় লিখিয়াছেন—“তাঁহার উপমা কেবল তিনি”। এরূপ রচনার সর্ব্বজন-বিদিত উদাহরণ—

    “राम-रावणयो र्युद्धं राम-रावणयो रिव।”

  35. “অনুজভূঃ”-শব্দটি উল্লেখযোগ্য। অধ্যাপক ভিনিস্ লিখিয়াছেন—“Anujabhuh is ambiguous. I explain thus:—anujabhuh (utpattih) yasya so nujabhuh.”
  36. অধ্যাপক ভিনিস্ লিখিয়াছেন—“Sasanogre I take equal to Ugrasasane, the commoner bahubrihi.”
  37. ব্রাহ্মণ-পত্নীর নাম “পাই” ছিল। তদনুসারে পাই + ইতি = পাঈতি শব্দ তাম্রপট্টে উৎকীর্ণ রহিয়াছে।